वाराणसी। नवरात्रि में दुर्गा पूजन का विशेष महत्व है। माँ के अष्टाक्षर मंत्र का जप विविध फल देता है। इसके लिये भूतशुद्धि तथा कलान्यासादि करनी चाहिये। मंत्र है – ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः। शारदातिलक के अनुसार यह आठ अक्षरों वाला दुर्गामन्त्र है। ‘इसके नारद ऋषि, गायत्री छन्द, दुरितातप-निवारिणी दुर्गा देवता हैं तथा सभी इष्टों की सिद्धि के लिये जप-हेतु विनियोग होता है। इस भावार्थ को प्रकट करने वाला वाक्य के अनुसार पढ़कर विनियोग करना चाहिये। फिर ‘ॐ नारदऋषये नमः शिरसि, ॐ गायत्री छन्दसे नमः मुखे, ॐ दुर्गादेवतायै नमः हृदये’ इन तीन मन्त्रों से ऋष्यादि न्यास करना चाहिये।
हृदयादिन्यास-फिर ‘ॐ ह्रां ॐ ह्रीं दुर्गायै नमः’ इत्यादि छः मन्त्रों से प्रथम करन्यास करके पुनः इन्हीं छः मन्त्रों से हृदयादि न्यास भी करना चाहिये। तत्पश्चात् ध्यान करना चाहिये।ॐ सिंहस्था शशिशेखरा’ इत्यादि श्लोक को पढ़कर उसके भावार्थ का ध्यान करते हुए दुर्गा देवी का ध्यान करना चाहिये। फिर मानसोपचारों द्वारा दुर्गा का पूजन करे। फिर देवीपीठोक्त परत्तत्त्वान्त देवताओं का पूजन करे। फिर केसरों में ‘ॐ आं प्रभायै नमः’ इत्यादि ९ मन्त्रों से पीठशक्तियों की पूजा करे। फिर पीठ के ऊपर ‘ॐ वज्रनखदंष्ट्रायुधाय महासिंहाय हुं फट्’ कहकर देवी को आसन देकर उस पर मूल मन्त्र (ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः) से मूर्ति की कल्पना करके आवाहनादि उपचारों से पूजन कर फिर आवरणपूजा करनी चाहिये।
षडङ्ग पूजा-‘हां ॐ दुं ह्रीं दुर्गायै नमः हृदयाय नमः’ इत्यादि छः मन्त्रों से यन्त्र में बने षट्कोण की पूजा प्रदक्षिणक्रम से पूर्व से प्रारम्भ कर करनी चाहिये। फिर षट्कोण के बाहर अष्टदल कमल में पूर्वदिशा से प्रदक्षिणक्रम से ‘ॐ जं जयायै नमः’ इत्यादि आठ मन्त्रों से पूजन करे। फिर उसके आगे पत्राग्रों में ‘ॐ चं चक्राय नमः’ इत्यादि आठ मन्त्रों से उन जयादि आठ शक्तियों के अस्त्रों की पूजा भी पूर्व से लेकर प्रदक्षिणक्रम से करे। उसके बाहर पूर्वादि क्रम से इन्द्रादि दश दिक्पालों की एवं उनके बाहर उनके वज्र आदि आयुधों की पूजा करके धूप से लेकर नमस्कार-पर्यन्त करना चाहिये। फिर मूल मन्त्र का आठ लाख की सङ्ख्या में जप करने से पुरश्चरण होता है।जैसा कि कहा गया है-तिलों को मधुर (शर्करा या गुड़) में सानकर आठ लाख जप के उपरान्त एक सहस्र हवन करना चाहिये। इस प्रकार से साधक मन्त्र को सिद्ध कर फिर कामना के अनुसार उसका प्रयोग करे। विधिपूर्वक नौ कलशों को स्थापित कर उनमें स्वर्ण रत्नादि डालकर नौ स्थानों पर रखे। उनमें मध्य में स्थित कलस पर देवी को पूजकर जयादि की पूजा करे। उनकी गन्ध-पुष्प आदि से पूजा कर फिर साधक (राजा या यजमान) का अभिषेक करे। ऐसा करने से राजा शत्रुओं को जीतकर लक्ष्मी को प्राप्त करता है। रोगी व्यक्ति सभी रोगों से रहित होकर दीर्घायु को प्राप्त करता है। विधिपूर्वक यदि वन्ध्या का अभिषेक किया जाय तो उसे श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्ति होती है। यदि इस मन्त्र को पढ़कर अभिमन्त्रित करके थोड़ा-सा जो घृत दिया जाय तो वह छोटे-मोटे ज्वरों को दूर कर देता है। गर्भिणी इत्यादि को यदि इसे जपकर यज्ञ की भस्म से शरीर का उद्ध्लन हो तो उनका गर्भ स्वस्थ रहता है।