वाराणसी। संस्कृत व्याकरण के अनुसार नांदी शब्द नंद धातु में घय प्रत्यय लगकर बनता है। नंद धातु भवादीगण की परस्मैपदी धातु है, जिसका अर्थ होता है प्रसन्न होना, हर्षित होना, संतुष्ट होना। इसमें इस कार्य को करने से पितर प्रसन्न होते हैं और विश्वदेव भी प्रसन्न होते हैं इसीलिए विष्णु पुराण में नांदी श्राद्ध का उल्लेख करते हुए यह व्याख्या बताई गई है कि ” नंदन्ति देवा: यत्र सा नांदी” यानी हमें किसी भी शुभ कर्म में अपने पितरों को प्रसन्न एवं अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए शुभ कर्म से पूर्व नांदी श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। नांदी श्राद्ध को ही अभ्युदय श्राद्ध भी कहते हैं। नांदिमुख श्राद्ध सभी शुभ कर्मों के पूर्व करने का विधान है। इससे हम जिन पुरखों के ऋणी हैं, उन्हें इस कार्य को करने से प्रसन्नता होती है एवं नांदिमुख श्राद्ध हो जाने पर कर्ता को जन्म या मृत्यु का सूतक दोष भी नहीं लगता । यह बहुत जरूरी है और वह कर्ता कोई भी शुभ कर्म, अनुष्ठान, यज्ञ आदि भी बिना संकोच के कर सकता है क्योंकि नांदिमुख शुभ कर्मों से पूर्व करने का विधान है। यदि आप यज्ञ करते हो तो उसके 21 दिन पहले, विवाह के 10 दिन पहले, चुराकरण के 3 दिन पहले और यज्ञोपवीत में 6 दिन पहले नांदी श्राद्ध करने का निर्देश हमारे शास्त्रों में मिलता है। हमें यह जानना चाहिए कि नांदी श्राद्ध करने से किसी भी तरह की दैविक आपदा भी हमारे अनुष्ठान या शुभ कर्मों में नहीं आते। भूकंप आदि का दोष भी नांदी श्राद्ध करने पर नहीं होता है। अनुष्ठान यदि आप कोई कर रहे हो या यज्ञ कर रहे हो तो नांदी साथ पूर्व में न कर पाए तो यथा समय भी किया जा सकता है । यदि यजमान के पिता, माता, दादा-दादी आदि जीवित हो तो उनका नांदिमुख श्राद्ध नहीं होगा तथा आगे वाले दो पीढ़ियों का होगा। इसका अर्थ यह है कि पिता जीवित है तो दादा तथा पूर्व पितामह का नांदिमुख साथ होगा । तब नांदिमुख श्राद्ध करते समय उनके पत्तल पर तीन कुश न रखकर केवल दो कुश ही रखे जाएंगे। उसी प्रकार यदि माता जीवित हैं तो माता का नांदिमुख श्राद्ध नहीं होगा तथा उस पत्तल पर दादी और परदादी के का कुश रखकर उनका ही केवल नान्दीमुख श्राद्ध होगा। यह विवेचना मैं अपने कर्मकांडी ब्राह्मणों एवं अपने शिष्यों के लिए विशेष रूप से विदित कर रहा हूं जिससे वह जान जाए कि नांदिमुख श्राद्ध कोई भी कर सकता है। बस जो लोग जीवित हैं उनका कुश उस पत्तल पर नहीं रखना होगा। नांदिमुख श्राद्ध में कुश सीधे रखे जाते हैं । इसको करने का सबसे अच्छा समय प्रातः काल ही माना जाता है। पत्तलों पर कुश को सीधा रखना चाहिए। इसे दोहरा मोड़कर नहीं रखना चाहिए। इसमें जनेऊ हमेशा बाएं कंधे पर ही होता है ।इसमें बाएं दाहिने करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती ।इस पूजा में स्वधा शब्द का कोई प्रयोग नहीं होता नहीं तिलों का प्रयोग होता है।
ब्रह्म पुराण तथा कल्पतरु के अनुसार नान्दी शब्द का अर्थ समृद्धि या उन्नति होता है। अतः ऐसे अवसर पर जो कोई भी शुभ कार्य आप करते हो, नांदिमुख श्राद्ध का विधान जरूर करना चाहिए। मान लीजिए किसी व्यक्ति ने इतनी आर्थिक संपन्नता प्राप्त कर ली और उसने किसी अच्छे स्थान पर भूखंड क्रय कर के वहां पर वास्तु शास्त्र के निर्देशानुसार भव्य भवन का निर्माण कर लिया तो गृह प्रवेश एवं वास्तु शांति के अवसर पर नांदिमुख श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। यह तो एक उदाहरण है। बाकी किसी भी शुभ कर्म से पहले आपको अपने पितरों का, अपने देवताओं का आवाहन करने के लिए नांदिमुख श्राद्ध बहुत जरुरी है। ऐसे में पूर्वजों का आवाहन कर उन्हें सम्मानित करने से उनकी आत्मा प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। वह प्रत्यक्ष अनुभव करती हैं कि हमारे कुल में इस व्यक्ति ने कितनी उन्नति कर ली है और हमारे प्रति कृतज्ञता भी ज्ञापित की है। इसलिए पुत्र आदि के जन्म भी तो उन्नति के सूचक होते हैं। विवाह भी उन्नति का सूचक है इसीलिए किसी भी शुभ करने नांदी श्राद्ध अवश्य कराना चाहिए। हम देखते हैं कि ऐसी प्रेरणा हमारे कर्मकांडी बंधु, हमारे ब्राह्मण बंधु अपने यजमानों को नहीं देते और एक तरह का संशय भी उत्पन्न होता है क्योंकि इस पूजन के साथ श्राद्ध लगा हुआ है ।शब्द का अर्थ गलत मत समझ कर यह समझना चाहिए कि जो श्रद्धा से किया जाए वही श्राद्ध है और नांदिमुख श्राद्ध एक तरह के पितरों का आवाहन है, जो आप अपनी श्रद्धा से करते हैं, इसीलिए एक विद्वान होने के नाते मेरा यह मत है और मैं हमेशा अपने शिष्यों को बताता हूं कि किसी भी शुभ कर्म से पहले नांदिमुख श्राद्ध यजमान के हाथों करा देने से उसकी उन्नति आगे की तरफ होती है और उस होने वाले कार्य में कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती है। इसीलिए अगर बिना बाधा के कोई भी शुभ कार्य आप करना चाहते हो तो उस यज्ञ से, उस अनुष्ठान से, उस पूजा से ,उस शुभ कर्म से पहले नांदिमुख श्राद्ध अवश्य करा लें। यह मेरा मत है और ऐसा ही मत हमारे शास्त्रों में भी विदित है।
प्राध्यापक- हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी। निदेशक: काशिका ज्योतिष अनुसंधान केंद्र। मो0- 9450209581/8840966024.