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एक मईः अब सुनाई नहीं देती मजदूरों के हक में आवाजें
-मजदूरों के श्रम को सम्मान देने वाला है यह दिन

मथुरा ( ज़ीशान अहमद )एक मई की पूर्व संध्या पर सोशल मीडिया पर मजदूरों के लिए कहीं कोई बधाई संदेश नहीं था। कोई हलचल नहीं थी। हाड़तोड़ मेहनत करने वालों के लिए किसी कार्यक्रम का भी कहीं आयोजन नहीं था। मई दिवस का यह सच कचोटता है। साल दर साल यही स्थिति चली आ रही है। यह महनत को सम्मान नहीं मिलने जैसी बात है।  न्यू ईयर, वेलेंटइन डे पर संदेशों की बाढ़ आ जाती है। मजदूरों से बात की तो ऐसा लगा जैसे उनसे कोई अजीब सी बात पूछ ली गई हो। इंडस्ट्रियल एरिया में ही 20 हजार से ज्यादा मजदूर काम करते हैं, लेकिन कोई संगठन नहीं बना हुआ है। फैक्ट्री संचालक के अपने नियम कायदे चलते हैं। मजदूर बोले हम तो सुबह आते हैं मेहनत मजदूरी करने के बाद जितना मिलता है उसे लेकर शाम को घर लौट जाते हैं। सालों से ऐसा ही हो रहा है। बहुत ही कम लोगों को मालूम था कि इस दिन अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस होता है। यह उनका दिन था, जिनके दम पर ऊंची इमारतें, बड़े उद्योग स्थापित हैं। बावजूद शहर में कोई शोर शराबा नहीं था। न तो उनकी आवाज उठाने वाली कोई यूनियन थी और न ही हितों की बात करने वाले समाजसेवी। यहां तक की सोशल मीडिया में भी सन्नाटा सा पसरा हुआ था। इतने घंटों के बाद हाथ में कुछ ही रुपये आते हैं। इस दिवस को मनाने की शुरुआत एक मई, 1886 से मानी जाती है। जब अमेरिका की मजदूर यूनियनों ने काम का समय आठ घंटे से ज्यादा न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी। मौजूदा समय भारत और अन्य मुल्कों में मजदूरों के आठ घंटे काम करने से संबंधित कानून लागू है। मजदूरों के अधिकार बताने वाला कोई नहीं है। काम भी स्थायी नहीं है। जब भी और जो भी काम मिलता है वह कर लेते हैं। परिवार भी तो पालना है।

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