वाराणसी। नारी मातृ देवता है। भारतीय संस्कृति ने उसको माता के रूप में उपस्थित कर इस रहस्य का उद्घाटन किया है कि वह मानव के काम उपभोग की सामग्री न होकर उसकी वंदनीय पूज्यनीय है। इसी नाते मानव धर्म शास्त्र में जननी का गौरव, उपाध्याय से 10 लाख गुना, आचार्य से लाख गुना तथा पिता से हजार गुना बढ़कर बताया गया है।
गर्भधारण से लेकर विद्याध्ययन भेजने के समय तक पुत्र का लालन पालन करते हुए वह अपना जैसा परिचय देती है। उससे यही प्रमाणित होता है की नारी का स्त्रीत्व मातृत्व ही है। संतान चाहे कुपुत्र निकल जाए परंतु जन्म दात्री माता कभी कुमाता नहीं बन पाती। “कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति” उसका स्नेह वात्सल्य अपनी संतान तक ही सीमित नहीं रहता। द्वार पर भिक्षा के लिए आए हुए गुरुकुल वासी ब्रह्मचारियों को उनकी माताओं के सदृश्य सप्रेम भिक्षा देकर वह उनको “मातृवत परदारेषु ” अर्थात पराई स्त्री को माता समझने का पाठ पढ़ाती है। इस प्रकार प्रत्यक्ष में समाज की जननी कहलाने का सौभाग्य प्राप्त करती है। कुदृष्टि युक्त कोई पुरुष उसके पतिव्रत तेज के समक्ष नहीं ठहर पाता और उसके मातृत्व के प्रति श्रद्धानवत होने के लिए वाध्य होता है। नारी को “मातृत्व” पुरुष के साथ समानता के सिद्धांत अनुसार किए गए किसी बंटवारे में नहीं मिला। यदि ऐसा होता तो वह बंदनीया ना हो पाती। शास्त्रीय दृष्टि में उसका यह मातृत्व दयामई जगनमाता का प्रसाद है। जिनका रूप कहलाने का गौरव सारे नारी समाज को प्राप्त हुआ है। विष्णु पुराण की सूक्ति है।
“देवतिर्य्यनगमनुष्येषु, स्त्रीनाम्नी श्रीश्च”।
अर्थात सामान्य रूप में देव समाज स्त्रीदेह तथा मानव समाज के पुरुषत्व में भगवान विष्णु के अभिव्यक्ति है और स्त्रीत्व में लक्ष्मी की, इसके अतिरिक्त जिन महिलाओं ने राष्ट्र का संरक्षण किया है। तथा त्याग, तपस्या, सात्विकता, सेवा और भगवत भक्ति आदि के द्वारा इतिहास के पृष्ठों को अलंकृत करते हुए आदर्श स्थापित किया है वह जगन माता की विशिष्ट विभूतियां हैं। इस मर्म को ना समझ कर पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित लोग धर्म शास्त्रों के उन वचनों को दुहाई देकर जिनमें नारी के जीवन का भार क्रमशः पिता पति और पुत्र पर डाला गया है यह भ्रम फैलाने का दुस्साहस करते हैं कि हिंदुओं ने नारी के अधिकारों की हत्या की है बल्कि वस्तु स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। पाश्चात्य सभ्यता ने आदिम मनुष्य के एक अंग से नारी की उत्पत्ति की कल्पना की और अपने व्यवहार से उसको मनुष्य के सुखों का भोग का यंत्र बनाने के लिए विवश कर अत्यंत दुखद अवस्था तक पहुंचा दिया। इसके अनुकरण से आर्य जननी की भी दुर्दशा होगी। आवश्यकता इस बात की है कि समस्त मानव समाज नारी का समादर एवं संरक्षण करें। “तभी यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता का सही मायने में वर्तमान परिपेक्ष्य में भी निहितार्थ सिद्ध होंगे।
“महर्षि याज्ञवल्क्य ने आज्ञा दी है
“भर्तृभ्रातृपितृ ज्ञातिस्वश्रुस्वशुरूदेवरे:
बन्धुभिश्च स्त्रियः पूज्या:”






