अहं राष्ट्रीय संगमनी वसुनां, रुद्राय धनुरातनोमि।

हमारा देश मातृभाव देश है मातृशक्ति अर्थात त्याग एवं संस्कारो से परिपूरित वह अविरल धारा जिसके वात्सल्यमयी किनारों पर ही पल बढ़कर किसी भी राष्ट्र की संतानें अपने पराक्रमी एवं प्रगतिशील स्वरूप को प्राप्तकर उस राष्ट्र को समृद्धशाली लक्ष्य की ओर अग्रसर करती है।हमारे देश में प्रेम, करुणा, ममता एवं वात्सल्य सृजन संरक्षण, पालन का स्वरूप ही मातृरूप है।

भारत के सन्दर्भ में तो यह मातृशक्ति प्रत्येक युग मे प्रासंगिक रही है। चाहे वह त्रेता की सीता हो द्वापर की यशोदा हो अथवा कलयुग की जीजाबाई हो इन सभी रूपो में स्त्री ने ही पुरुष का एक ऐसा पराक्रमी शिल्प गढ़ा जो कालांतर में शौर्य एवं समृद्धि का अद्द्भुद प्रकाश स्तम्भ बनकर उभरा जो सदियो तक इस देश की पीढियो को मार्गदर्शित करता रहेगा। अपनी लाज एवं देश के स्वभिमान को बचाये रखने के लिए रानी पद्द्मावती और उनकी संगिनियों के संग जौहर की मिसाल विश्व में कही नहीं मिलती। मेरे विचार में वह जौहर न होकर राष्ट्रदेव का महायज्ञ था जिसमे विधर्मियो को अपना शरीर न छूने देने की विकट उत्कंठा, इतना विराट विचार हमारे अतिरिक्त विश्व की किसी भी सभ्यता के नाम नही लिखा गया। मातृशक्ति का गौरव बोध हमे तब तब होता है जब हम महारानी लक्ष्मीबाई का दमनकारी अंग्रेजो के फौज से घिरी हुई भारत की वीरांगना को मुंह घोड़े की लगाम थामे पीठ पर अपने लाल को बांधे दोनों हाथों से तलवार की धार से अंग्रेजो का संहार करती उस महान वीरांगना का स्मरण रोमांच से भर देता है। मानो साक्षात रणचंडी नें अवतार लिया हो। स्वराष्ट्र की रक्षा के लिए एक वात्सल्य मई माँ का ऐसा रौद्र रूप विश्व के किसी भूभाग में प्रकट नही हुआ है। वैसे ही अपने पौरुष शक्ति से इस भारत भू पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर अभिलेख लिखने वाले वीर सावरकर, पंडित चंद्रशेखर, सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, महात्मा गांधी और हजारों हजार नाम क्रांतिकारी भाई बहन जो हँसते हँसते मृत्यु का वरण कर गये अपनी माँ की ही गोद में स्वधीनता का स्वप्न्न देख सके थे। कहने का तात्पर्य है कि किसी भी सशक्त राष्ट्र की इमारत का आधार मातृशक्ति (महिला) ही होती है। जो हमे देवी उपासना की देवी सूक्त में मिलते है।

“अहं राष्ट्रीय संगमनी वसुनां तथा रुद्राय धनुरातनोमि” सूक्त की ऋचाये यह स्पष्ट कर देती है कि पूरे राष्ट्र को एक शक्ति में बांधने वाली मातृशक्ति ही है, वह मातृशक्ति शक्ति ही है जो इस देश को ऐश्वर्यवान एवं सम्पन्न बनाती है तथा इतना ही नही राष्ट्रद्वेषीयों (ब्रम्हद्वेषीयो) के संहार के लिए रुद्र का धनुष भी चढ़ाती है तथा आकाश और पृथ्वी में व्याप्त होकर मनुस्त्व के लिए जरूरत पड़ने पर संग्राम भी करती है। गंगा, लक्ष्मी, सरस्वती, यहां तक कि भारत माँ भी इन्ही मातृशक्तियो के विराट स्वरूप है। हालांकि हमारे देश में कुछ काल खंड के कुत्सित मानसिकताओं के कारण शक्ति स्वरूपा नारी को अबला, जैसे नामों से सम्बोधित करने का प्रयास किया किंतु उसी कालखण्ड में समय समय पर जीजाबाई, लक्ष्मीबा, दुर्गाबाई, अहिल्याबाई, भुवनेश्वरी देवी, लक्ष्मीबाई केलकर से लेकर हीराबेन तक जिन्होंनें व्यक्ति निर्माण, राष्ट्र निर्माण तक स्वयं से लेकर नई पीढ़ी को तैयार कर स्वयं को सिद्ध करते रही। मां जैसा चाहे अपने संतानों को गढ़ सकती है नई पीढ़ी का निर्माण कर सकती है, पर इसके लिए हमारे देश की संस्कृति पर चैनलों के माध्यम से आज जो आक्रमण हो रहे है ऐसे संदर्भ में मातृशक्ति का उत्तरदायित्व और भी बढ़ जाता है। क्योंकि बच्चा जन्म देना अलग बात और उसका उचित लालन पालन करना अलग बात, स्त्री को स्त्री होने का मतलब समझना चाहिए। कितनी विचित्र बात है हम इस कदर स्वयं मनोभावो की दासता व गुलामी की मानसिकता के दौर से गुजर रहे है कि अपनी परंपरा और अपनी क्षमता का अनुभव ही नहीं होता। अपनी शक्ति पर हम विश्वास ही नही कर पाती की परमात्मा ने हमे मां के रूप में सर्वोच्च स्थान दिया है। मेरा मानना है कि स्त्रियो को पुरुषों की तुलना में समकक्ष खड़ा करना बेमानी है जिसका स्थान देवताओ से भी ऊंचा हो उसे आगे निकल जाने की होड़ कैसा? नारी के लिए उसके प्रति अनेकों प्रकार के सम्बोधन का उसके स्वयं के सिद्ध करने की स्थिति में कोई फर्क नही पड़ा, वह अनवरत नई पीढ़ी निर्माण कर  परिवार से लेकर राष्ट्रचिंतन की दशा में समाज जागरण का कार्य करते रही ।नारी कभी भी स्वयं को कमतर न समझते हुए स्वयं की भूमिकाओं को पूर्णता दी है  चाहे वह माँ से लेकर अनेकानेक सम्बोधनों के साथ समाज निर्माण और राष्ट्र के विकास में सहायक रही है और रहेगी। हमारा कर्तव्यबोध भी यही कहता है कि प्रकृति ने हमे सृजनकर्ता के रूप में चुना है तो प्रत्येक रिश्ते को बखूबी निभाना हमारा कर्तव्य ही नही धर्म भी है मां के रूप में एक आदर्श नई पीढ़ी तैयार करना, बहन के रूप में पुरुष को सदा अपना स्नेह प्रदान करना, पत्नी के रूप में घर-गृहस्थी की देखभाल करना और पूरे परिवार को संभालने जैसा काम बेहद महत्वपूर्ण है। वर्तमान में तो नारी पुरुषों के समान ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना कौशल और प्रतिभा दिखा रहीं हैं। महिलायें माउंट एवरेस्ट से लेकर अंतरिक्ष तक, संसद से लेकर सड़क तक, जल से लेकर आकाश के ऊँचाईयों तक, सीमा से लेकर सुखोई तक, प्रत्येक क्षेत्र में अपने मूल कर्तव्यों के साथ बेहतरीन प्रदर्शन कर रही है। परन्तु मेरा मानना है कि पाश्चात्य अंधानुकरण में स्त्री अपनी नैसर्गिक गुड़ धर्म लज्जा का आभूषण उतार कर अगर वह पुरुषों की कार्बन कापी करने की कोशिश करेंगी तो न तो वह अपने आनेवाली पीढ़ी को सही दिशा दे पाएंगी और न ही स्वयं भी वह सम्मान पा सकेंगी सारे समीकरण गड़बड़ा जाएंगे। आप सभी मातृशक्तियों से मैं इतना ही कहना चाहती हूं कि प्राचीन भारत मूल्यो को आत्मसात कर नारी शक्ति आधुनिकता को अपनाएगी तो निश्चित ही इस देश का भविष्य उज्ज्वल है ।

 

 

 

 

 

 

मीना चौबे, उत्तर प्रदेश भाजपा की प्रदेश मंत्री।

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