हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – हमारे आसपास का वातावरण हमारे मन की स्थिति को प्रभावित करता है। अपने आस-पास एक दिव्य, शुद्ध और सुंदर वातावरण निर्मित करने का प्रयास करें ..! आत्म-अनुशासन, ज्ञान और आशावादिता से घर-परिवार, समाज व देश में स्वस्थ वातावरण निर्मित होगा। इसलिए हरपल अच्छा करें और अपने आस-पास खुशियां फैलाएं, इससे आत्म-सम्मान की प्राप्ति होगी। आत्म-सम्मान अनुशासन का फल है। आत्म-स्वरूप का बोध और स्वयं की निजता में जीवन जीने का अभ्यास महती उपलब्धि है ! धर्म, सदाचार और नैतिकता के पाठ मनुष्य को दिशा दिखाने के लिए हैं। वे सत्य, असत्य का भेद करना सिखाते हैं। मनुष्य को जीवन मार्ग पर चलना स्वयं ही पड़ता है और निर्णय भी स्वयं ही लेने होते हैं। मार्ग सही हो, निर्णय उचित हों, तो इसे सुनिश्चित करना संभव है। इसके लिए लोभ और मोह त्यागना होता है, क्रोध और अहंकार त्यागना होता है, काम को वश में करना होता है। यही आत्म-नियंत्रण है। स्वयं पर नियंत्रण नहीं, तो धर्म, नैतिकता और सदाचरण की बात व्यर्थ है। जीवन में समस्याओं और दु:खों का कारण आत्म-नियंत्रण न होना है। धर्म कोई चमत्कार नहीं करता। धर्म के प्रकाश में किए गए कर्म ही फल देते हैं। बड़े परिणामों के लिए विकारों को वश में करना तो दूर रहा, मनुष्य जीवन को सामान्य बनाए रखने के लिए भी कोई प्रयास नहीं कर रहा है। जीवन कैसा हो? इसका संदेश प्रकृति में ही छिपा हुआ है। संपूर्ण सृष्टि एक नियम में चल रही है। कभी ऐसा नहीं हुआ कि रात के बाद दिन न आया हो। वायु और जल निरंतर प्रवाह में हैं। मौसमों का क्रम अपरिवर्तनीय है। पतझड़ के बाद बसंत को ही आना है। नियमबद्धता सृष्टि का स्वाभाविक चरित्र है। मर्यादा पालन, सहयोग समन्वय व समयबद्धता आदि का जीवन से पलायन हो चुका है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी जीव का स्थायी आवास नहीं होता। मनुष्य ने आवास बनाया, किंतु उसे बनाने में इतना श्रम और नियोजन किया, मानो उसे सदियों उसमें रहना है, सारे जीव प्राकृतिक खाद्य पदार्थो पर निर्भर हैं, मनुष्य ने खाद्य पदार्थों के नए-नए रूप बना लिए हैं। सृष्टि बहुरंगी है, किंतु मनुष्य को यह स्वीकार नहीं है कि उसे हर वह चीज चाहिए, जो किसी दूसरे के पास है। इस प्रवृत्ति ने उसके जीवन को उद्दंड बना दिया है। प्रतिस्पर्धा के नाम पर आज जो कुछ किया जा रहा है वह उद्दंडता ही है। इसलिए कभी उदार और दयालु होने में, सहयोग और सहायता देने में विनम्र और विकार रहित होने में तो कोई प्रतिस्पर्धा होते नहीं दिखती है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – अमरता आत्मा में निहित सभी शक्तियों की परिणति है। जो क्षुधा, पिपासा, शोक, मोह, जरा, मृत्यु से परे है, वही आत्मा है। शुद्ध, चैतन्य, अविनाशी आत्मा ही सुनने, चिंतन करने और ध्यान करने योग्य है, अन्य सभी सांसारिक कर्म तो व्यर्थ हैं। अक्सर मानव-मन की कामनाओं के कोलाहल में आत्म-स्वर शिथिल हो जाते हैं। अतः स्वयं का परिचय प्राप्त कर आत्म-स्वर को प्रबल बनायें। अपनी निजता के बोध का फलादेश है – अनन्तता और अतुल्य सामर्थ्य का अनुभव। अतः आत्माभिमुखी बनें, आत्म-निरीक्षण हितकर है। आत्मवान व्यक्ति सभी को अपनी आत्मा में और स्वयं को सभी की आत्मा में एकत्व परमात्व भाव से देखता है। जिस प्रकार दूध में मिलकर दूध, तेल में मिलकर तेल और जल में मिलकर जल एक हो जाते हैं, ठीक वैसे ही आत्मज्ञानी आत्मा में लीन होने पर आत्म-स्वरूप ही हो जाते हैं। आत्म-साक्षात्कार द्वारा आत्मानुभूति को प्राप्त कर साधक, सिद्ध होकर पूर्णता को प्राप्त करता है। फिर उसके लिए दु:ख कैसा, सुख कैसा अथवा सुख कहाँ, दु:ख कहाँ? अतः आत्म-स्वरूप का बोध होने पर जगत मनोरंजन दृश्य दिखने लगेगा और फिर आप दुःख में भी हंसने लगेंगे। मनुष्य में अपार ऊर्जा, शक्ति और अतुल्य – सामर्थ्य विद्यमान है। आत्म-तत्व का बोध होते ही जीवन सरल, सहज और दिव्य अनुभूत होने लगता है। जीवन का प्रत्येक पल अंतहीन संभावनाओं से भरा है, अतः आत्म-जागरण जीवन की स्वाभाविक और प्रथम मांग है। स्वस्थ समाज के लिए आत्म-जागरण आवश्यक है। आत्म तत्त्व के दर्शन, जागरण और समुन्नयन के लिए चार सोपान कहे गए हैं – आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास। मनुष्य होना बड़ा दुर्लभ है। मनुष्य होने का अर्थ है कि आपकी संभावनायें अनन्त हो गई हैं। आपको ईश्वरीय अनुभूति की विराटता उपलब्ध हो गई है। जहाँ अंतहीन संभावनाएं और दैवीय संभावनाएं हैं, वही जीवन मनुष्य का जीवन है। जैसी अनंतता ईश्वर के पास है, वैसी ही अनंतताएं, विराटताएं, सामर्थ्य, माधुर्य, सौन्दर्य और आनन्द ईश्वर ने मनुष्य को भी दिया हैं। अतः मन की शक्तियां अपार हैं, उसके सामने कोई टिक नहीं पाया। अपनी स्वयं की अज्ञानता के कारण ही यह बंधन का कारण बनता है, नहीं तो यह मोक्ष का कारण है …।