हमारा चरित्र ही हमारा व्यक्तित्व है, वही हमारी पहचान भी है – स्वामी अवधेशानंद गिरि

हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “विपत्सु वज्रधैर्याणां संग्रामे वज्रदेहिनाम् …”। जैसे प्रत्युषा काल में यामिनी तमस् पराभूत कर मार्तण्ड की दिव्य-आभा जगत को प्रकाशित करती है। वैसे ही संघर्ष काल में विवेक विचार द्वारा आत्म-सामर्थ्य उजागर होती है। अतः प्रत्येक परिस्थिति में भगवदीय विधान के प्रति समर्पित रहें ..! जीवन में विचार, विवेक और भावना नहीं है तो वह जीवन मानव जीवन नहीं हो सकता। विनय, विनम्रता और विवेक ये मनुष्य के आंतरिक गुण हैं, जो मनुष्य के प्राण माने जाते हैं, जिसके अन्दर ये गुण नही है, न तो उस शरीर का अस्तित्व है और न ही उस आत्मा का। सत्संग के बिना विवेक नहीं होता। मानव को सत्य और असत्य का ज्ञान जरूरी है। ज्ञान के अभाव में ही मानव दु:खी है। सत्य ज्ञान का आधार सत्संग ही है। सत्संग के बिना मनुष्य को सच्चे मानव धर्म का पता नहीं चलेगा। मानव शरीर दुर्लभ शरीर है, इसलिए देव दुर्लभ कर्म हमें करना चाहिए। प्रभु की अनन्य कृपा व दया से मानव शरीर की प्राप्ति हुई है। हमें इसका सदुपयोग करना चाहिए। जो मनुष्य नित्य विवेक के आश्रय में जीवन व्यतीत करता है, उसके जीवन में कभी कोई कठिनाई नहीं आती। विवेक की सबसे प्रत्यक्ष पहचान, सतत् प्रसन्नता है। विवेक, बुद्धि की पूर्णता है। जीवन के सभी कर्तव्यों में वह हमारा पथ-प्रदर्शक है। मनुष्य जीवन के तीन स्तम्भ हैं – आचार, विचार और व्यवहार। इसी के साथ विवेक भी आ जाए तो जीवन में फिर आनन्द ही आनन्द है। आचार, विचार और व्यवहार में विचार का महत्त्व अधिक है, क्योंकि अन्य दो बातें आचार और व्यवहार इसी विचार पर निर्भर करता है। यदि सद्विचार होगा तो आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति जीवन में होगी। यदि विचार कुत्सित हुआ तो आध्यात्मिक एवं भौतिक अवनति जीवन में होगी। विचार का अर्थ मनन होता है और मनन से हम चिंतन समझ सकते हैं। विचार में हमेशा निरीक्षण की प्रवृत्ति रखनी होगी। अतः जो व्यक्ति विवेक के नियम को तो सीख लेता है पर उन्हें अपने जीवन में नहीं उतारता वह ठीक उस किसान की तरह है, जिसने अपने खेत में मेहनत तो की पर बीज बोये ही नहीं …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जीवन में सत्संग की अति आवश्यकता होती है। सत्संग के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा है। सभी महापुरुषों ने भी सत्संग की महिमा का बखान किया है। मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्संग को ही विवेक का जन्मदाता कहा है। सत्संग का अर्थ है – हर पल ईश्वर की अनुभूति में जीवन जीना। सत्संग से विनम्रता का प्रादुर्भाव होता है। विनम्रता आपके आंतरिक प्रेम की शक्ति से आती है। दूसरों को सहयोग व सहायता का भाव ही आपको विनम्र बनाता है। आपके अन्दर नयी ऊर्जा व ज्ञान का विस्तार भी करता है। यह कहना गलत है कि यदि आप विनम्र बनेंगे तो दूसरे आपका अनुचित लाभ उठाएँगे। जबकि यथार्थ स्वरूप में  विनम्रता आपमें अद्भुत धैर्य पैदा करती है। आपमें सोचने-समझने की क्षमता का विकास करती है। विनम्र व्यक्तित्व का एक प्रचंड आभामण्डल होता है। जो दिव्य तेज की तरह चमकता रहता है और उसकी कांती चारों दिशाओं में फैल जाती है। धूर्तो के मनोबल उस आभा से निस्तेज हो स्वयं परास्त हो जाते है। शत्रु स्वयं ही उससे दूर हो जाते है और वह अपने लक्ष्य को भी हासिल करते हैं तथा कामयाबी व सफलता भी प्राप्त करता है। विनय और विवेक प्रकार हमारे व्यवहार में जो कुछ है वह हमारे विचारों की ही देन है। अच्छे विचार ही अच्छे आचरण के रूप में प्रकट होकर हमारी आदत बन जाते हैं। अच्छी-अच्छी आदतों से मिलकर ही हमारा चरित्र बनता है। हमारा चरित्र ही हमारा व्यक्तित्व है । वही हमारी पहचान भी है। कुल मिलाकर कोई भी व्यक्ति अपने व्यवहार से ही जाना – पहचाना जाता है। हमारे कार्य और व्यवहार में हमारे भीतर सँजोए गये सदगुण ही प्रकटित होते हैं। इसलिए हमेशा अच्छे सद्गुणों के प्रति सजग और सावधान रहना चाहिए। विनय और विवेक ऐसे सद्गुण हैं, जिनसे हम अपने और अपने आसपास के जीवन को सुश्रेष्ठ बना सकते हैं …।

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