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संस्मरण : “दौर बदला, वक्त बदला, दशक बदले लेकिन ये सच आज भी नहीं बदला कि ईमानदारी आज भी है”

हमारे एक भइया हैं गोधर भइया। वैसे तो उनका नाम शिवनाथ मिश्र है, लेकिन इलाके में वो गोधर बाबा के नाम से ही जाने जाते हैं। बात 1988 की है शायद। तब भइया दुबले पतले थे, लेकिन उनके व्यक्तित्व का वजन उनके वास्तविक वजन का कई गुना था। इसी नाते जिद थी कि खरीदेंगे तो सिर्फ बुलेट मोटरसाइकिल। उन्होंने हमारे जिला मुख्यालय सिद्धार्थनगर के एक डॉक्टर साहब की सेकेंड हैंड बुलेट पसंद की।

तीन लोग घर से बुलेट खरीदने के लिए निकले। भइया, हमारे पंडित जी और मैं। पंडित जी पारखी के तौर पर गए थे। मैं इस नाते गया था कि तब परिवार में बुलेट चलाना सिर्फ मुझे आता था। गांव से चले उस्का बाजार पहुंचे, चाय की दुकान पर रुके। जलपान हुआ, चाय पी गई, फिर सिद्धार्थनगर के लिए जीप में बैठकर निकले। वहां पहुंचे। डॉक्टर साहब की बुलेट देखी गई। पसंद आई, चलाकर देखा। बढ़िया थी। कीमत पहले से ही तय थी। भइया ने कहा- पंडित जी पैसा निकालिए। पंडित जी अवाक..। बोले पैसे तो आपके पास थे पर्स में। अब हम तीनों परेशान, क्योंकि छोटे से हैंडबैग में पैसे रखे थे। शायद 17 हजार रुपये थे। भइया को लगा कि पर्स पंडित जी के बैग में होगा। पंडित जी जानते थे कि पर्स भइया के हाथ में था। फिर तो पक्का ही हो गया कि उस चाय की दुकान पर ही पैसों से भरा पर्स छूटा होगा।

हम सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। सिद्धार्थनगर से फिर भागे उस्का बाजार। रास्ते में भगवान से मनाते हुए कि हे भगवान कहीं वो पर्स खोलकर देख न ले। अगर पैसे देख लिए तो देगा नहीं। हमारे पास कोई सबूत नहीं था कि पैसे से भरा पर्स वहां छूटा है। हम लोग चाय की दुकान पर पहुंचे। बिना दुकानदार को बताए उस बेंच पर इधर-उधर, ऊपर-नीचे देखने लगे। पर्स कहीं नहीं था।

दुकानदार सब देख रहा था, बोला- क्या ढूंढ रहे हैं आप लोग। पंडित जी ने कहा- भाई एक पर्स छूट गया था यहां। दुकानदार ने पूछा- क्या था पर्स में भाई साहब, कितना बड़ा पर्स था? हमने हाथ से इशारा करके पर्स की साइज बताई। हम लोग नहीं बताना चाह रहे थे कि उसमें पैसा था। उसने जोर दिया तो बताया कि पैसे थे उसमें कुछ। दुकानदार ने अचानक पर्स निकाला और हमें थमा दिया। बोला- गड्डियां हैं इसमें। गिनकर देख लीजिए, पैसे पूरे हैं कि नहीं।

हम लोगों के जान में जान आई, लेकिन हमने पैसे गिने नहीं। लगा कि ये दुकादार की ईमानदारी का अपमान होगा। भइया ने पर्स में से कुछ नोट निकाले और इनाम के तौर पर दुकानदार को देना चाहा। उसने हाथ जोड़ लिए, बोला- साहब पैसे की इतनी भूख होती तो मेरे पास 17 हजार रुपये आ गए थे। सब रख लेता। हमने बहुत मनुहार की। उसने कहा कि ठीक है आप कुछ करना चाहते हैं तो सामने मंदिर बन रहा है- उसमें अपनी श्रद्धा से कुछ दान कर दीजिए। हमने ऐसा ही किया।

करीब 33 साल पुरानी ये कहानी याद आई कल की एक घटना से। मेरा एक भतीजा अंकित Siddharth Mishra मेरे साथ ही रहता है। कल दिल्ली के गोकलपुरी स्थित अपने दफ्तर से निकला। भौपुरा के लिए जाने वाले शेयरिंग ऑटो में बैठा। ऑटो से उतरा तो 50 रुपये का नोट थमाया, किराया 10 रुपये था। ऑटो वाले ने कहा कि फुटकर नहीं है। बगल की दुकान से 10 रुपये की इलाइची ले लो। फुटकर हो जाएगा, मेरा भी काम हो जाएगा। अंकित ने ऐसा ही किया। उसे इलाइची दी, दुकानदार से बाकी पैसे लिए। ऑटो वाला चला गया। अचानक अंकित को याद आया कि बैग तो ऑटो में ही छूट गया।

उस बैग में कंपनी का आईपैड था, टिफिन था, कुछ और चीजें भी थीं। नई नौकरी और ऑफिस का आईपैड गायब। लगे रोने। मेरे पास फोन किया। मैंने कहा कि पहले रोना बंद करो और पुलिस को सूचना दो। दिल्ली पुलिस ने कहा कि ये यूपी का मामला है, क्योंकि भौपुरा यूपी में है। यूपी पुलिस को संपर्क किया तो उसने कहा कि ये दिल्ली का मामला है, क्योंकि ऑटो तो दिल्ली से आता था। कुछ खास हुआ नहीं।

रोते-सिसकते घर पहुंचे। अपने पति की हालत देख हमारी बहू भी गमगीन हो गई। रात में मैं घर पहुंचा। सबको मिठाई खिलाई। कहा कि रोने से अगर बैग मिलता तो हम सब रोते। मस्त रहो, अब आईपैड खो जाने के बाद क्या करना है, उस पर हम लोग फोकस करें। मैंने कहा- मुझे पूरा विश्वास है कि तुम्हारा बैग तुम्हें वापस मिल जाएगा। सब हंसी खुशी रात में सो गए।

आज सुबह उदास मन से अंकित दफ्तर रवाना हुए। भौपुरा पहुंचे तो फिर उस दुकान पर पहुंचे, जहां से उन्होंने ऑटो वाले के लिए इलाइची खरीदी थी। दुकानदार ने फौरन अपने पास से बैग निकालकर दिया। बताया कि ऑटो वाला आया था, उसने बैग सौंपा और कहा था कि जिसका बैग होगा, वो जरूर तुम्हारे पास आएगा, उसे ये बैग दे देना। बहुत जरूरी चीजें हैं इसमें। बैग पाने की आस खो चुके अंकित का चेहरा खिल गया। हालांकि उस ऑटो वाले से मुलाकात नहीं हुई, जिसने बैग लौटाया था।

विकास मिश्र, वरिष्ठ टीवी पत्रकार

ये दोनों कहानियां गवाह हैं कि दौर बदला, वक्त बदला, दशक बदले, लेकिन ये सच आज भी नहीं बदला कि ईमानदारी आज भी उस तबके में सबसे ज्यादा है, जो अपनी मेहनत की कमाई पर भरोसा करते है। अभी मैंने अंकित से बात नहीं की है, रात में घर जाकर बात होगी, लेकिन उस ऑटो वाले के लिए दिल से दुआएं निकल रही हैं।

(“वरिष्ठ टीवी पत्रकार विकास मिश्र जी के फेसबुक वॉल से साभार)

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