वाराणसी। स्कंद पुराण के ब्रह्मउत्तरखंड में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया गया है l भगवान शिव गुरु है, देवता है, प्राणियों के बंधु हैं l शिवजी ही आत्मा और शिवजी ही जीव हैं ।शिव से भिन्न दूसरा कुछ नहीं है ।भगवान शिव के उद्देश्य से जो कुछ भी दान, जप, होम आदि करता है उसका फल अनंत बताया गया है ।यह समस्त शास्त्रों में विदित है कि शिव के पूजा का अनंत फल मिलता है ।ऐसा कहा जाता है कि वही जिह्वा सफल है जो भगवान शिव की स्तुति करती है ।वही मन सार्थक है जो शिव का ध्यान करता है ।वही काम सफल हैं जो भगवान शिव की कथा को सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं और वही दोनों हाथ सार्थक हैं जो भगवान शिव की पूजा करते हैं। वे ही नेत्र धन्य हैं जो महादेव की पूजा का दर्शन करते हैं। वह मस्तक धन्य है जो शिव के सामने झुक जाता है ।वे पैर धन्य हैं जो भक्ति पूर्वक शिव के क्षेत्रों में सदा भ्रमण करते रहते हैं। जिसकी संपूर्ण इंद्रियां भगवान शिव के कार्यों में लगी रहती हैं, वह संसार सागर से पार हो जाता है और भोग तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है । जिसके हृदय में भगवान शिव की लेश मात्र भी भक्ति है वह समस्त देहधारियों के लिए वंदनीय है ।मनुष्य शिव का उपासक होकर स्वयं पूजनीय और वंदनीय हो जाता है एवं शिव की पूजन में इतनी शक्ति है कि शिव का उपासक समाज में एक विशिष्ट स्थान उनकी कृपा से रखता है । श्रावण मास में एवं शिवरात्रि के दिन शिव के पूजन और उनके प्रति समर्पण का विशेष महत्व है। श्रावण मास एवं शिवरात्रि शिव को प्रिय है और शिव भक्तों को भी प्रिय।
भगवान शिव का पूजन अर्चन और उपासना
हमारे शास्त्रों में भगवान शिव की पूजन अर्चन और उपासना के विभिन्न मत वर्णित हैं । भगवान शिव सगुण साकार मूर्त रूप में एवं निर्गुण निराकार अमूर्त रूप में भी पूजित हैं ।सगुण साकार रूप में शिव का पूजन विभिन्न स्वरूपों में भक्त अपनी भावना के अनुसार उनके रूपों को याद करके करता है ।कभी वे परम शिव के रूप में तो कभी सांब सदाशिव, उमा महेश्वर, अर्धनारीश्वर, महामृत्युंजय, पशुपति, दक्षिणामूर्ति योगेश्वर, तथा महेश्वर आदि नामों से भक्तों द्वारा आराधित हैं ।भगवान शिव की पांच मूर्तियां हैं जिन्हें पंचमूर्ति कहा जाता है। इन 5 मूर्तियों में भगवान शिव के 5 स्वरूपों का दर्शन है। प्रथम स्वरूप ईशान का, द्वितीय स्वरूप तत्पुरुष का, तृतीय स्वरूप अघोर का, चतुर्थ स्वरूप वामदेव का और पंचम स्वरूप सद्योजात का है। शिवरात्रि के दिन जो भगवान शिव के इन पांचों नाम का स्मरण जप और पूजन करता है उसके सारे अभीष्ट फल सिद्ध हो जाते हैं ।ग्रंथों में तो भगवान शिव के अष्टमूर्ति के पूजन का भी विधान मिलता है । अतः भगवान शिव परम ब्रह्म तत्व को प्रकट करने वाले एवं भक्तों द्वारा शीघ्र प्रसन्न होने वाले देव हैं।
शिव के आराधकों को जानना चाहिए आवश्यक बातें
यदि आपके इष्ट देव भगवान शिव हो या शिवरात्रि के दिन आप इनका पूजन इष्ट देव के रूप में करते हो तो इन विशेष नियमों के विधान पर ध्यान देना चाहिए। शिव पूजन करते समय ललाट पर त्रिपुंड अवश्य लगाना चाहिए और रुद्राक्ष की माला भी धारण करना आवश्यक कहा गया है। हम जानते हैं एवं यह हमारे शास्त्रों में भी विदित है कि देवता बनकर ही देवता की पूजा करनी चाहिए। लिखा भी हुआ है- देवो भूत्वा यजेद देवम । अतः त्रिपुंड धारण और रुद्राक्ष धारण शिवपूजन में आवश्यक है। यदि आप भगवान शिव की उपासना अंतर और वाह्य दोनों प्रकार से करते हो तो भगवान शिव का स्वरूप आपके अंदर स्थित होना चाहिए। जिसका अंतर्मन जितना शुद्ध होता है भगवान शिव उन भक्तों पर उतना ही जल्दी प्रसन्न होते हैं ।भगवान शिव के मंदिर में जाकर त्रिपुंड लगाएं, रुद्राक्ष धारण करें एवं भगवान के बाह्य स्वरूप का दर्शन करें । पूजन आराधना से पहले अंगन्यास भी कर लेना चाहिए जो उत्तम एवं फलदाई होता है। भगवान शिव के पूजन में मंत्रों का विशेष फल है। भगवान शिव के पूजन उपासना में पंचाक्षर मंत्र नमः शिवाय, लघु मृत्युंजय, महामृत्युंजय आदि मंत्रों को श्रावण मास भर प्रतिदिन जपना चाहिए। इन मंत्रों के जप में इतनी शक्ति है कि मृत्यु भी दूर हो जाता है और व्यक्ति को दीर्घायु की प्राप्ति होती है। साथ ही साथ अमृत और मोक्ष को भी भगवान शिव प्रदान करने वाले हैं। भगवान शिव की उपासना में यजुर्वेद के रुद्राष्टाध्यायी का विशेष महत्व है।जो भक्त पूरे सावन भर या शिवरात्रि के दिन रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करता है एवं भगवान शिव का अभिषेक करता है, भगवान शिव उस पर महती प्रसन्न होकर कृपा करते हैं।यह रुद्राष्टाध्यायी शिव पूजन में बहुत आवश्यक है ।समस्त वेद राशि के मध्य मणि के रूप में यह रूद्र अध्याय विराजमान है ।रुद्राष्टाध्यायी का सीधा पाठ षड़ंग कहलाता है ।नमक चमक से युक्त 11 अनुवाको में किया गया एकादशनि रुद्र के नाम से प्रसिद्ध है और इस रुद्राष्टाध्यायी को अनुष्ठान के रूप में हम तीन प्रकार से ग्रहण करते हैं। हम इसका पाठ भी करते हैं जिसे पाठ आत्मक, अभिषेक भी करते हैं जिसे अभिषेक आत्मक, और हवन भी करते हैं जिसे हवनात्मक अनुष्ठान कहते हैं। इन तीनों प्रकार के अनुष्ठान में भगवान शिव को अभिषेक आत्मक अनुष्ठान अत्यंत प्रिय है ।भगवान शिव का रुद्राष्टाध्यायी मंत्रों द्वारा अभिषेक विशेष फलदाई माना गया है। भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए गंगाजल से, ईख के रस से, दूध से, पंचामृत से एवं अन्य कई द्रव्यों से अपनी अभिलाषा के अनुसार रुद्राष्टाध्यायी के मंत्रों द्वारा अभिषेक किया जाता है ।एकादशीनि रुद्री की 11 आवृति होने पर लघु रुद्र कही जाती है एवं लघु रुद्र की 11 आवृत्ति होने पर महारुद्र कहा जाता है ।महारुद्र की 11 आवृत्ति होने पर अति रुद्र होता है। इस प्रकार इन तीनों प्रकार के अनुष्ठानों की अपने शास्त्रों में बहुत महिमा वर्णित है अतः शिव भक्तों को चाहिए कि अपने शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार इसका अनुष्ठान करते कराते रहें ।इसके अलावा भगवान शिव के नाम का जप, उनके स्तोत्र का पाठ, मानस पूजा, शिव के चरित्र का चिंतन, कीर्तन, शिव पुराण आदि ग्रंथों का स्वाध्याय ,उनको सुनना , भगवान शिव के लिए व्रत उपवास करना इत्यादि बहुत ऐसे साधन बताए गए हैं जो भगवान शिव को प्रसन्न कर देते हैं और यदि भगवान प्रसन्न हैं तो भक्तों को भी प्रसन्न होने में देर नहीं होती।
आचार्य पं0 धीरेन्द्र कुमार पाण्डेय, ज्योतिर्विद व प्राध्यापक- हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी।
निदेशक- काशिका ज्योतिष अनुसंधान केंद्र।
नोट: ज्योतिषीय मार्गदर्शन व सुझाव प्राप्ति हेतु आपके प्रश्न मो0 9450209581/ 8840966024 पर आमंत्रित हैं।