आंवला वृक्ष का शास्त्रोक्त महत्व।
14 मार्च को आमलकी एकादशी का व्रत है जिसे रंगभरी एकादशी भी कहते है। इस एकादशी का माहात्म्य भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं बताया है जो प्रसंग अधोलिखित है।
युधिष्ठिर ने कहा- श्रीकृष्ण ! आप मुझे फाल्गुन शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम और माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- महाभाग धर्मनन्दन ! सुनो – तुम्हें इस समय वह प्रसंग सुनाता हूँ, जिसे राजा मान्धाता के पूछने पर महात्मा वसिष्ठ ने कहा था। फाल्गुन शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘आमलकी’ है। इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति करानेवाला है। मान्धाता ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! यह ‘आमलकी’ कब उत्पन्न हुई, मुझे बताइये । वसिष्ठजीने कहा- महाभाग ! सुनो- पृथ्वी पर ‘आमलकी’ की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह बताता हूँ। आमलकी महान् वृक्ष है, जो सब पापों का नाश करनेवाला है। भगवान् विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान् एक बिन्दु प्रकट हुआ। वह बिन्दु पृथ्वी पर गिरा। उसी से आमलकी (आँवले) का महान् वृक्ष उत्पन्न हुआ। यह सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है। इसी समय समस्त प्रजाकी सृष्टि करनेके लिये भगवान ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया। उन्हीं से इन प्रजाओं की सृष्टि हुई। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अन्तः करणवाले महर्षियों को ब्रह्माजी ने जन्म दिया। उनमें से देवता और ऋषि उस स्थान पर आये, जहाँ विष्णुप्रिया आमलकी का वृक्ष था। महाभाग ! उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। वे एक दूसरे पर दृष्टिपात करते हुए उत्कण्ठापूर्वक उस वृक्ष की ओर देखने लगे और खड़े खड़े सोचने लगे कि प्लक्ष (पाकर) आदि वृक्ष तो पूर्वकल्प की ही भाँति हैं, जो सब-के-सब हमारे परिचित हैं, किन्तु इस वृक्ष को हम नहीं जानते। उन्हें इस प्रकार चिन्ता करते देख आकाशवाणी हुई ‘महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलकी का वृक्ष हैं, जो विष्णुको प्रिय है। इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है। स्पर्श करने से इससे दूना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। इसलिये सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकी का सेवन करना चाहिये। यह सब पापों को हरनेवाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान् रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियोंमें देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलकी सर्वदेवमयी बतायी गयी है। अतः विष्णुभक्त पुरुषों के लिये यह परम पूज्य है।’ ऋषि बोले- [अव्यक्त स्वरूपसे बोलनेवाले महापुरुष!] हमलोग आपको क्या समझें- आप कौन हैं? देवता हैं या कोई और? हमें ठीक ठीक बताइये।
आकाशवाणी हुई- जो सम्पूर्ण भूतों के कर्ता और समस्त भुवन के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, वहीं सनातन विष्णु मैं हूँ। देवाधिदेव भगवान् विष्णु का कथन सुनकर उन ब्रह्मकुमार महर्षियों के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। वे आदि अन्तरहित भगवान की स्तुति करने लगे।
ऋषि बोले- सम्पूर्ण भूतों के आत्मभूत आत्मा एवं परमात्मा को नमस्कार है। अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले अच्युतको नित्य प्रणाम है। अन्तरहित परमेश्वर को बारम्बार प्रणाम है। दामोदर, कवि (सर्वज्ञ) और यज्ञेश्वर को नमस्कार है। मायापते। आपको प्रणाम है। आप विश्व के स्वामी हैं, आपको नमस्कार है।
ऋषियों के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान् श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले- महर्षियो। तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूँ?” ऋषि बोले- भगवन् । यदि आप संतुष्ट हैं तो
हम लोगों के हित के लिये कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला हो।
श्रीविष्णु बोले- महर्षियो। फाल्गुन शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त द्वादशी हो तो वह महान् पुण्य देनेवाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है। द्विजवरो। उसमें जो विशेष कर्तव्य है, उसको सुनो। आमलकी एकादशी में आँवलेके वृक्ष के पास जाकर वहाँ रात्रि में जागरण करना चाहिये। इससे मनुष्य सब पापों से छूट जाता और सहस्र गोदानों का फल प्राप्त करता है। विप्रगण यह व्रतों में उत्तम व्रत है, जिसे मैंने तुमलोगोंको बताया है।
ऋषि बोले- भगवन्! इस व्रतकी विधि बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, नमस्कार और मन्त्र कौन से बताये गये हैं? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है? पूजनकी कौन सी विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है? इन सब बातों का यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये।
भगवान् विष्णु ने कहा- द्विजवरो! इस व्रत की जो उत्तम विधि है, उसको श्रवण करो। एकादशीको प्रातः काल दन्तधावन करके यह संकल्प करे कि ‘हे पुण्डरीकाक्ष हे अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा। आप मुझे शरण में रखें।’ ऐसा नियम लेनेके बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी मर्यादा भंग करनेवाले तथा गुरुपत्नीगामी, मनुष्यों से वार्तालाप न करे ।अपने मन को वश में रखते हुए नदीमें, पोखरेमें, कुएँपर अथवा घरमें ही स्नान करे। स्नानके पहले शरीरमें मिट्टी लगाये।।
मृत्तिका लगानेका मन्त्र:
अश्वक्रान्ते रथकान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे।
मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोट्यां समर्जितम् ॥
‘वसुन्धरे। तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान् विष्णु ने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था। मृत्तिके, मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापको हर लो।”
स्नान मन्त्र:
त्वं मातः सर्वभूतानां जीवन तत्तु रक्षकम् ।
स्वेदजोद्भिजातीनां रसानां पतये नमः।
स्नातोऽहं सर्वतीर्थेषु हृदप्रस्त्रवणेषु च।
नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत् ॥
“जलकी अधिष्ठात्री देवी, मातः। तुम सम्पूर्ण भूतोंके लिये जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जाति के जीवोंका भी रक्षक है। तुम रसों को स्वामिनी हो, तुम्हें नमस्कार है। आज मैं सम्पूर्ण तीथों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरोंमें स्नान कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानों का फल देनेवाला हो।
विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह परशुरामजी की सोने की प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिये। स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करें। इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्ष के पास जाय। वहाँ वृक्षके चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमिमें मन्त्रपाठ पूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करे। कलश में पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेतचन्दन से उसको चर्चित करे। कण्ठ में फूलकी माला पहनाये। सब प्रकारके धूप की सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह कि सब ओर से सुन्दर एवं मनोहर दृश्य उपस्थित करे। पूजा के लिये नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे। कलशके ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य लाजों (खीलों) से भर दें। फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुरामजीकी स्थापना करे। ‘विशोकाय नमः ‘ कहकर उनके चरणोंकी, ‘विश्वरूपिणे नमः’ से दोनों घुटनोंकी, ‘उग्राय नमः’ से जाँघोंकी, ‘दामोदराय नमः’ से कटिभागकी, पद्मनाभाय नमः’ से उदरकी, ‘श्रीवत्सधारिणे नमः’ से वक्षःस्थलकी, ‘चक्रिणे नमः’ से बायी बाँहकी, ‘गदिने नमः – से दाहिनी बाँहकी, ‘वैकुण्ठाय नमः’ से कण्ठकी, “यज्ञमुखाय नमः’ से मुखकी, ‘विशोकनिधये नमः – से नासिकाकी, ‘वासुदेवाय नमः’ से नेत्रोंकी, ‘वामनाय नमः’ से ललाटकी, ‘सर्वात्मने नमः’ से सम्पूर्ण अंगों तथा मस्तक की पूजा करे। ये ही पूजाके मन्त्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्घ्य प्रदान करें।
मन्त्र इस प्रकार है –
नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोऽस्तु ते ।
गृहाणार्घ्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥
‘देवदेवेश्वर। जमदग्नि नन्दन श्रीविष्णु स्वरूप परशुराम जी, आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आँवले के फलके साथ दिया हुआ मेरा यह अर्ध्य ग्रहण कीजिये।
तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करे। नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णु सम्बन्धिनी कथा-वार्ता आदिके द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान् विष्णुके नाम ले-लेकर आमलकी वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सबेरा होनेपर श्रीहरि की आरती करे। ब्राह्मण की पूजा करके वहाँ की सब सामग्री उसे निवेदन कर दे। परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि ‘परशुरामजी के स्वरूप में भगवान् विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों।’ तत्पश्चात् आमलकी का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणको भोजन कराये। तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे। ऐसा करने से जो पुण्य होता है, वह सब बतलाता हूँ। सुनो। सम्पूर्ण तीर्थो के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालनसे सुलभ होता है। समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है, जिसका मैंने तुमसे पूरा-पूरा वर्णन किया है।
वसिष्ठजी कहते हैं- महाराज इतना कहकर देवेश्वर भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरूप से पालन किया। नृपश्रेष्ठ। इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्यको सब पापोंसे मुक्त करनेवाला है।
द्वारा: आचार्य पं0 धीरेन्द्र मनीषी, प्राध्यापक: हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी।। निदेशक: काशिका ज्योतिष अनुसंधान केंद्र, वाराणसी।। मो0: 9450209581/ 8840966024