हरिद्वार। जूनापीठाधीश्वर आचार्यमहामंडलेश्वर पूज्यपाद स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज ने कहा – “मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ..!” भरोसा रखें ! कि भगवान हमेशा आपका सर्वोच्च कल्याण चाहते हैं। प्रभु की दिव्य योजना में विश्वास रखें। सर्वोच्च भगवान सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं। संसार के सभी जीव ईश्वरीय शक्ति का प्रकटीकरण है। ईश्वर पर जो पूर्ण विश्वास करते हैं और हरपल ईश्वर का नामजप व स्मरण करते हैं, ईश्वर सभी आपत्ति-विपत्तियों में उसकी सहायता और रक्षा करते है। संसार में जो कुछ भी प्रभाव देखने, सुनने में आता है वह भी एक भगवान का ही है। ऐसा मान लेने पर संसार के प्रति खिंचाव सर्वथा मिट जाता है। यदि संसार का थोड़ा सा भी आकर्षण रहता है तो यह समझना चाहिए कि अभी भगवान को दृढ़ता से माना ही नहीं। इतिहास साक्षी है कि बिना लड़े भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी मात्र बनकर पाण्डवों को विजयी बना दिया और शक्तिशाली सेना प्राप्त करके भी कौरवों को हारना पड़ा। दुर्योधन ने भूल की जो स्वयं भगवान के समक्ष सेना को ही महत्त्वपूर्ण समझा और सैन्य बल के समक्ष भगवान को ठुकरा दिया। क्या हम भी कहीं संसारी शक्तियों, भौतिक सम्प्रदायों के बल पर ही जीवन संग्राम में विजय तो नहीं पाना चाहते हैं? और, वो भी ईश्वर की उपेक्षा करके? हम भी तो भगवान और उनकी भौतिक स्थूल शक्ति दोनों में से दुर्योधन की तरह स्वयं ईश्वर की उपेक्षा कर रहे हैं और जीवन में संसारी शक्तियों को प्रधानता दे रहे हैं; किन्तु इससे तो कौरवों की तरह असफलता ही मिलेगी। वस्तुतः जीत उन्हीं की होती है जो भौतिक शक्तिओं तक ही सीमित न रह कर परमात्मा को अपने जीवन रथ का सारथी बना लेते हैं। उसे ही जीवन का सम्बल बनाकर मनुष्य इस जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त कर लेता है। हम देखते हैं कि ईश्वर को भूलकर संसार का तानाबाना हम बुनते रहते हैं, अपने मन में हवाई किले बनाते है, कल्पना की उड़ान से दुनिया का ओर-छोर नापने की योजना बनाते हैं; किन्तु हमें पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ती हैं, स्वप्रों का महल एक झोंके में धराशायी हो जाता है, कल्पनाओं के पर कट जाते हैं, सब कुछ बिगड़ जाता है, अन्त में पछताना पड़ता है। दुर्योधन, रावण, हिरण्यकशिपु, सिकन्दर आदि बड़ी-बड़ी हस्तियाँ पछताती चली गईं। भगवान के संसार में रहकर भगवान को भूलने और केवल शक्तियों को प्रधानता देने से और क्या मिल सकता है? संसार के रणांगण में उतर कर हम इतने अन्धे हो जाते हैं कि इस सारी सृष्टि के मालिक का आशीर्वाद लेना तो दूर उसका स्मरण तक हम नहीं करते और भौतिक स्थूल संसार को ही प्रधानता देकर जूझ पड़ते हैं। इसलिए ऐसे अहंकारी व्यक्ति चाहे कितनी भी सफलता क्यों न प्राप्त कर लें, उनकी विजय संदिग्ध ही रहती है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – ईश्वर विश्वास के लिए श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रद्धा ही ईश्वर-विश्वास का मूल स्रोत है एवं श्रद्धा के माध्यम से ही उस विराट की अनुभूति सम्भव है। श्रद्धा समस्त जीवन नैया की पतवार को ईश्वर के हाथों सौंप देती है। जिसकी जीवन डोर प्रभु के हाथों में हो भला उसे क्या भय ! जो प्रभु का आँचल पकड़ लेता है, वह निर्भय हो जाता है, उसके सम्पूर्ण जीवन से प्रभु का प्रकाश भर जाता है। तब उसके जीवन में, व्यवहार में प्रत्येक पहलू प्रभु प्रेरित होता है, उसका चरित्र दिव्य गुणों से सम्पन्न हो जाता है। वह स्वयं परमपिता का पुत्र हो जाता है। फिर उसके सक्षम समस्त संसार फीका और निस्तेज, बलहीन क्षुद्र जान पड़ता है; किन्तु यह सब श्रद्धा से ही सम्भव है। परमात्मा की सत्ता, उनकी कृपा पर अटल-विश्वास रखना ही श्रद्धा है। ज्यों-ज्यों साधक का विश्वास दृढ़ होता जाता है, त्यों-त्यों प्रभु का विराट स्वरूप सर्वत्र भासित होने लगता है। हमारे भीतर बाहर चारों ओर श्रद्धा के माध्यम से ही हमें परमात्मा का अवलम्बन लेना चाहिये। श्रद्धा से ही उस परमात्व-तत्व पर जो हमारे बाहर भीतर व्याप्त है उसे हम अनुभूत कर पाते हैं। स्थूल जगत का समस्त कार्य-व्यापार ईश्वरेच्छा एवं उसके विधान के अनुसार चल रहा है। वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी इस तथ्य को एक स्वर से स्वीकार भी करते हैं। कहने के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं, फिर भी यह निश्चित ही है कि यह सारा कार्य-व्यापार किसी अदृश्य सर्वव्यापक सत्ता द्वारा चल रहा है। हमारा जीवन भी ईश्वरेच्छा का ही रूप है। अतः जीवन में ईश्वर विश्वास के साथ-साथ समस्त कार्य-व्यापार में उसकी इच्छा को ही प्रधानता देनी चाहिये। प्रभु की इच्छानुसार ही जीवन-रण में जूझना आवश्यक है। इसी तथ्य का संकेत करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था – ‘‘तस्मात् सर्वकालेषु मामनुस्मर युध्यश्च …’’ अर्थात्, ‘‘हे अर्जुन ! तू नित्य निरन्तर मेरा स्मरण करता हुआ मेरी इच्छा अनुसार युद्ध कर …’’ परमात्मा सभी को यही आदेश देते हैं। ईश्वर का नाम लेकर उसकी इच्छा को जीवन में परिणित होने देकर जो संसार के रणांगण में उतरते हैं, उन्हें अर्जुन की ही तरह निराशा का या असफलता का सामना नहीं करना पड़ता। ईश्वरेच्छा को जीवन संचालन का केन्द्र बनाने वाले की हर साँस से यही आवाज निकलती रहती है -‘‘हे ईश्वर ! आपकी इच्छा पूर्ण हो …’’ “हे प्रभु ! आपकी इच्छा पूर्ण हो …” और, जीवन का यही मूलमंत्र भी है। महापुरुषों के जीवन इसके साक्षी हैं। जीवन में हर श्वांस, हर धड़कन में हम प्रभु की इच्छा को ही प्रधान समझें। इसलिए जब हम अपने जीवन को प्रभु के हाथों में सौंप देंगे तो अन्त में भी हमें उनके पावन अंक में ही स्थान मिलेगा; साथ ही हमारा भौतिक जीवन भी दिव्य एवं महनीय बन जायेगा …।