हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “विद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संसयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्टएवात्मनीश्वरे …”।। कार्य में उत्कृष्टता योग है। समर्पण, उत्साह और भगवान के प्रति समर्पण के साथ अपने कर्तव्य को पूरा करें ..! जिन शक्तियों से मनुष्य जीवन के निर्माण कार्य पूरे होते है, उत्साह उनमें प्रमुख है। इससे रचनात्मक प्रवृत्तियाँ जागती हैं और सफलता का मार्ग खुलता है उत्साह के द्वारा स्वल्प साधन और बिगड़ी हुई परिस्थितियों में भी लोग आत्मोन्नति का मार्ग निकाल लेते हैं। बाल्मीकि-रामायण का एक सुभाषित है – “उत्साहों बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्। सोत्साहस्य त्रिलोकेषु नकिञ्चदपि दुर्लभम् …”॥ अर्थात् – “हे आर्य ! उत्साह में बड़ा बल होता है, उत्साह से बढ़कर अन्य कोई बल नहीं है। उत्साही व्यक्ति के लिये संसार में कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है”। कार्य कैसा भी क्यों न हो, उसे पूरा करने के लिये उत्साह जरूर चाहिये। आप अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हों तो आपको अपने उद्देश्य के प्रति उत्साही बनना पड़ेगा, अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा। अरुचि और अनुत्साह से काम करेंगे तो थोड़ी बहुत जो सफलता मिलने वाली भी होगी, वह भी न मिलेगी। इसके विपरीत यदि रुचि और साहस के साथ काम करेंगे तो कठिन कामों को पूरा करने के लिये भी एक सहज-स्थिति प्राप्त हो जायेगी …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – संसार में साहसी और निष्ठावान व्यक्तियों के पीछे स्वतः लोग अनुगमन करते हैं, उन आदर्शों को जीवन में धारण करने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं। इतिहास को मोड़ देने वाले व्यक्ति ऐसे ही हुये हैं। नव-निर्माण की रूप रेखा बनाने वाले बहुत मिल सकते हैं, किन्तु जब तक कोई उत्साही पुरुष उसमें प्राण नहीं फूंकता तब तक कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकलते। स्वराज्य के प्रति आस्था रखने वाले व्यक्ति बापू जी से पहले भी हुये हैं, धार्मिक निष्ठा जगद्गुरु शंकराचार्य के पूर्व भी थी, पर राजनीतिक जीवन में हलचल उत्पन्न करके स्वराज्य प्राप्त करने का श्रेय गाँधी जी को ही दिया जाता है। उसी तरह आध्यात्मिक आस्थाओं को विशाल भू-भाग में पुनर्जीवित करने का महान कार्य जगद्गुरु शंकराचार्य ही कर सके थे। कैसी ही दुखदायक और विषम परिस्थिति क्यों न आ जाये, उत्साह सदैव हमारा सहायक सिद्ध होता है। संसार के इतिहास में जितने अमर, महापुरुष हुये हैं, उनमें अपनी-अपनी तरह के धार्मिक, राजनैतिक, समाज सुधारक कैसे ही गुण और विशेषतायें रही हों, पर एक गुण जो सब में समान रूप से दिखाई देता है, वह है – उत्साह ! उत्साह का अर्थ है – अपनी मान्यताओं के प्रति दृढ़ता। हम जो कहते हैं, उसको कितने अंशों में पूरा कर सकते हैं इससे उस कार्य के प्रति अपना विश्वास प्रकट होता है और उसी के अनुरूप प्रभाव भी उत्पन्न होता है। उत्साह कहने की नहीं, बल्कि करने की शैली का नाम है। मनुष्य की जिन्दगी निराशा के अंधियारे में नष्ट कर डालने की वस्तु नहीं हैं। जीवन एक साहसपूर्ण अभियान है। उसका वास्तविक आनन्द संघर्षों में है। निराशा और कुछ नहीं, मृत्यु है। पर लगन और उत्साह से तो मृत्यु को भी जीत लिया जाता है। इस जीवन में भी निराश हो कर जीना कायरता नहीं तो और क्या है? परमात्मा ने हमें इसलिए नहीं पैदा किया कि हम पग-पग के विवशताओं पर आँसू बहाते फिरें। हमें सिंह पुरुषों की तरह जीना चाहिए। उत्साह पूर्वक जीना चाहिए, इस महामंत्र को यदि अच्छी प्रकार सीख लें तो आपको धन की झींक, साधनों का अभाव यह कुछ भी परेशान करने वाले नहीं। आपके हृदय में उत्साह का बल होना चाहिये और जब यह बल आप पा गये तो इस जीवन में आपको सुख ही सुख रहेगा। इस प्रकार आप सदैव प्रसन्नता में आत्म-विभोर बने रहेंगे …।