हमारी माँ हमारी प्रथम गुरु होती हैंं- स्वामी अवधेशानंद गिरि

हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – उच्च नैतिक मानकों से परिपूर्ण पारमार्थिक जीवन ही श्रेष्ठ एवं अनुकरणीय है ! अतः जीवन के वृक्ष को समर्थ सदगुरु रूपी माली की संरक्षण में सत्संग-स्वाध्याय और सदविचारों की खाद द्वारा निरंतर अभिसिंचित करते रहें ..! अध्यात्म पथ के प्रदर्शक है – सद्गुरु। गुरु न सिर्फ हमें सही-गलत का ज्ञान कराते हैं, बल्कि वे आध्यात्मिक पथ पर भी अग्रसर करते हैं। तभी तो ईश्वर भी स्वयं की बजाय सर्वप्रथम गुरु को पूजने की बात कहते हैं। समर्थ गुरु यदि जीवन में मिल जाये तभी जीवन पूर्ण होता है। गुरु-तत्व हमारे जीवन में व्याप्त है। हमारी माँ हमारी प्रथम गुरु होती हैं। जीवन के हर विषय के लिए गुरु होते हैं – धर्म के लिए ‘धर्म गुरु’, परिवार के लिए ‘कुल गुरु’, राज्य के लिए ‘राजगुरु’, किसी विषय के अध्ययन के लिए ‘विद्या गुरु’ और अध्यात्म के लिए ‘सद्गुरु’। सद्गुरु न केवल आपको ज्ञान से भरते हैं, बल्कि वह आपके भीतर जीवन में ऊर्जा की ज्योति भी प्रज्वलित करते हैं। गुरु की उपस्थिति में आप और भी अधिक जीवंत हो जाते हैं। आप बुद्धि की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेते हैं, जो बुद्ध-चेतना है। गुरु न केवल आपको बुद्धिमान, बल्कि ज्ञानी भी बनाते हैं। अध्यापक व्यक्ति को ज्ञान प्रदान करते हैं, लेकिन गुरु सजगता की उन ऊंचाइयों तक आपको ले जाते हैं, जिससे आप पूर्णरूप से खिल जाते हैं। उपनिषदों के अनुसार, गुरु के पाँच लक्षण हैं – ज्ञान रक्षा, दु:ख क्षय, सुख आविर्भाव, समृद्धि, ऐश्वर्यवर्धन। सद्गुरु की उपस्थिति में ज्ञान पल्लवित होता है और दु:ख क्षीण होने लगता है। बिना कारण आपका मन प्रसन्न रहता है और सभी योग्यताएं बढ़ जाती हैं। जब जीवन में संपूर्णता होती है, तब कृतज्ञता का भाव उदित होता है। गुरु की आवश्यकता हर क्षेत्र में होती है। आप यदि किसी अनजान जगह जाते हैं, तो मानचित्र खरीदते हैं। मानचित्र यह बिल्कुल भी नहीं बता पाता है कि सड़कें बुरी हालत में हैं या अच्छी हालत में। वहाँ सफर करना दुरूह होगा या आसान? इसलिए हम वैसे लोगों से दिशा-निर्देश प्राप्त करते हैं, जो वहाँ तक जाने का अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। बिना गुरु से ज्ञान प्राप्त किए ज्यादातर लोगों के लिए आध्यात्मिक पथ का अनुसरण एक जटिल प्रक्रिया बन जाती है। यदि उन्होंने इसके बारे में किताबों से थोड़ा-बहुत ज्ञान अर्जित कर लिया है, तो यह भी पर्याप्त नहीं होता है। जब इस ज्ञान को आजमाने की बारी आती है, तो एक सद्गुरु का निर्देश मिलना अत्यंत आवश्यक होता है। जिन व्यक्तियों ने स्वयं से साक्षात्कार कर लिया है या फिर जो आध्यात्मिक राह पर चल चुके हैं, वे ही सच्चे ‘गुरु’ हैं। वे ही इस राह की जटिलताओं से परिचित कराने में समर्थ हो सकते हैं। वे न सिर्फ आपकी गलतियों को सुधारते हैं, बल्कि आपको नई राह भी दिखाते हैं। इसलिए यही राह ही आपको सच्चा मानव बनाता है ..!

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – साधना पथ के दिशावाहक गुरु की महिमा को इस रूप में प्रतिपादित किया गया है कि ‘हरि ने जनम दियो जग माही, गुरु ने आवागमन छुड़ाहीं …’ अर्थात्, भगवान ने जग में जन्म दिया है, लेकिन गुरु आवागमन से मुक्ति दिलाते हैं। जब गुरु की कृपा हो जाती है तो चाहे जितने भी संकट हों, भवसागर को पार करने में शिष्य सक्षम हो जाता है। कहा जाता है कि ‘चरण कमल पर तन मन वारों, गुरु न तजौं हरि को तज डारौं …’। हरि ने जन्म देने के साथ ही पांच चोरों को साथ में लगा दिया। ये चोर हैं – काम, क्रोध, मोह, लोभ व मद जो छिपकर वार करते हैं, इसलिए इन्हें चोर की संज्ञा दी गई है। इनके प्रभाव से मुक्त होने का मार्ग सद्गुरु की शरण में जाने पर ही मिल पाता है। गुरु साधना, योग आदि की जानकारी देकर शिष्य को इनसे छुटकारा पाने में पारंगत कर देते हैं। गुरु की शरण में जाने वाले भक्त के हृदय में जो हो, वही उसके आचरण में भी होना चाहिए। उसका गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ही उसे सच्ची गुरु भक्ति की ओर अग्रसर करता है। जब समर्पण है तो सारी निधि उसके पास है। गुरु-शिष्य मिलन अथवा गुरु-शिष्य दीक्षा के अवसर पर गुरु स्पर्श द्वारा, दृष्टि द्वारा और वाणी द्वारा शिष्य को ‘शक्तिपात’ कर दीक्षित कर देता है। गुरु अपनी मानसिक तरंगों को शिष्य में प्रतिस्थापित कर उसे साधना पथ पर अग्रसर कर देता है। अब यह शिष्य पर निर्भर करता है कि वह कितना ग्रहण कर पाता है। अनन्त सामर्थ्य का ज्ञान मनुष्य अज्ञेय, अपराजित और अनन्त है। उसकी मानसिक शक्तियां भी अनन्त हैं। ईश्वर की सत्ता उसमें है, इसलिए वह श्रेष्ठ है। जो इस अजेय, अनन्त सामर्थ्य से हमारा परिचय करा दे, उसी तत्व का नाम ‘गुरु’ है। विचार, विवेक, ज्ञान और उसका अभ्यास ही गुरुतत्व का प्राकट्य है। इसलिए गुरुतत्व का अर्थ है – जिसे नित्य, विवेक, विचार और अभ्यास के साथ अनुभव किया जा सके। आप कैसा बनना चाहते हैं, यह आपके ऊपर निर्भर करता है। जैसा भी आप बनना चाहते हैं, उसकी सामर्थ्य आपके भीतर विद्यमान है। हाँ, उस असीमित सामर्थ्य से परिचय निश्चित तौर पर गुरु ही कराते हैं। गुरु ही शिष्य को ईश्वर से परिचित कराते हैं। हर व्यक्ति के अंदर ऊर्जा का अजस्र स्रोत है, लेकिन इन शक्तियों से परिचित गुरु कराते हैं। मन के विकारों को गुरु ही मिटाते हैं। वे व्यक्ति को ज्ञानवान और अनुशासित बनाते हैं। उनके सिखाए सद्कर्मों के बल पर व्यक्ति मृत्यु के बाद भी अमर हो जाता है। महाभारत में श्रीकृष्ण, अर्जुन के गुरु की भूमिका में थे। उन्होंने अर्जुन को हर उस समय थामा, जब वे लड़खड़ाते नजर आए। गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया, क्योंकि वह शिष्य को नया जन्म देते हैं। गुरु विष्णु भी हैं, क्योंकि वे शिष्य की रक्षा करते हैं। गुरु महेश्वर भी हैं, क्योंकि वे शिष्य के दोषों का संहार करते हैं। प्रश्न यह उठता है कि जब गुरु और भगवान दोनों एक साथ खड़े हों, तो पहले किसके चरण-स्पर्श करें? इसके जवाब में कबीरदास जी कहते हैं कि पहले गुरु को प्रणाम करूँगा, क्योंकि गुरु ने ही गोविंद तक पहुंचने का मार्ग बताया है। “गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय …”।। मनुष्य स्वयं की शक्तियों से परिचित हो, इसके लिए गुरु की आवश्कता पड़ती है। स्वयं कबीरदास जी एक रात जब गंगा तट की सीढ़ियों पर पड़े थे, तो उनके शरीर पर रामानंद जी के पैर पड़ गए। तब रामानंद जी के मुख से राम-राम शब्द निकल पड़े। उसी राम नाम को कबीरदास ने अपना दीक्षा-मंत्र मान लिया और रामानंद को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कहते हैं कि यह रामानंद जी के ही विचार थे, जिन्होंने कबीर को धर्म से ऊपर उठकर देखने की शक्ति प्रदान की। स्वामी विवेकानंद जी की ऊर्जा को सही दिशा देने का कार्य उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने किया। गुरु के बताए मार्ग पर चलने के कारण ही विवेकानंद ने मानव और राष्ट्रधर्म के बारे में जन-जन को बताया। कर्मयोग के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व को वेदांत दर्शन से परिचित कराया। गुप्त काल में चंद्रगुप्त मौर्य के शासन में भारत एक सम्प्रभु और शक्तिसंपन्न राष्ट्र बना। और यह तभी हो पाया, जब आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त के मन में अखंड भारत के प्रति प्रेम के बीज बोए। इनके अलावा, और भी कई महान लोग हैं, जिनका जीवन गुरु के दिशानिर्देश से बदल गया। इसलिए हम भले ही स्वयं के अनुभवों से सीख लेकर आगे बढ़ते रहें, पर हमारे जीवन में ‘गुरु की महत्ता’ सदैव बनी रहेगी …।

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