हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “ऋतेSर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि। तद्विद्यादात्मनो माया यथाSSभासो यथा तम: …।। शास्त्रों और दिव्य संतों से सद्ज्ञान प्राप्त करें। आध्यात्मिक ज्ञान दुःख पर नियंत्रण पाने की कुंजी है। आध्यात्मिकता का सार अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना है। – (श्रीमद्भगवद) कर्तापन का अभिमान आध्यात्मिक पथ की मूल बाधा है। अहमन्यता के अवसान होते ही दैवत्व का आरोहण होने लगता है और जीवन में समस्त दिव्यताएंं स्वत: प्रकट होने लगती हैं। विद्या-विभूति, यश-वैभव, साधन संपन्नता एवं लौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं के रूप में जो कुछ भी प्राप्त है, वह ईश्वरीय उपहार है। अत: प्राप्त के प्रति प्रासादिक भाव रखें। सरल-विनम्र और निराभिमानी जीवन अभ्यासी बनें। जिसे अपना कुशल करना है और परमपद निर्वाण उपलब्ध करना है तो उसे चाहिए कि वह सुयोग्य बने, सरल बने, सुभाषी बने, मृदु स्वभावी बने, निरभिमानी बने और संतुष्ट रहे। थोड़े में अपना पोषण करे, दीर्घसूत्री योजनाओं में न उलझा रहे, सादगी का जीवन अपनाऐ, शांत इन्द्रिय बने, दुस्साहसी न हो, दुराचरण न करे और मन में सदैव यही भाव रखे कि सभी प्राणी सुखी हों, निर्भय हों एवं आत्म-सुखलाभी हों। किसी का अपमान न करें, क्रोध या वैमनस्य के वशीभूत होकर एक-दूसरे के दु:ख की कामना न करें। समस्त प्राणियों के प्रति अपने मन में अपरिमित मैत्रीभाव बढ़ाएं। जब तक निद्रा के आधीन नहीं हैं, तब तक खड़े, बैठे या लेटे हर अवस्था में इस अपरिमित मैत्री भावना की जागरूकता को स्थिर रखें। इसे ही भगवान ने ‘ब्रह्म विहार’ कहा है। अज्ञानता, आत्म-विस्मृति और अविवेक ही समस्त दु:खों की मूल जड़ है। अतः सत्संग, स्वाध्याय और संत सन्निधि ही कल्याणकारी है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – धर्म जीवन का शाश्वत और सार्वभौमिक तत्व है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। धर्म का अर्थ है – आत्मा को आत्मा के रूप में उपलब्ध करना, न कि जड़ पदार्थ के रूप में। भगवान महावीर ने कहा है कि धर्म शुद्ध आत्मा में ठहरता है और शुद्ध आत्मा का दूसरा नाम है – अपने स्वभाव में रमण करना और स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना। असल में वास्तविक धर्म तो स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार ही है। यह नितांत वैयक्तिक विकास की क्रांति है। विडंबना यह है कि हम धर्म के वास्तविक स्वरूप को भूल गए हैं। धर्म की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं और भिन्न-भिन्न स्वरूप बना लिए गए हैं। जीवन की सफलता-असफलता के लिए व्यक्ति स्वयं और उसके कृत्य जिम्मेदार हैं। इन कृत्यों और जीवन के आचरण को आदर्श रूप में जीना और उनकी नैतिकता-अनैतिकता, अच्छाई-बुराई आदि को स्वयं द्वारा विश्लेषित करना यही धर्म का मूल स्वरूप है। धर्म को भूलते जाना या उसके वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहने का ही परिणाम है कि व्यक्ति हर क्षण दु:ख और पीड़ा को जीता है, तनाव का बोझ ढोता है, चिंताओं को विराम नहीं दे पाता, लाभ-हानि, सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद को जीते हुए जीवन के अर्थ को अर्थहीन बनाता है। वह असंतुलन और आडंबर में जीते हुए कहीं न कहीं जीवन को भार स्वरूप अनुभूत करता है, जबकि इस भार से मुक्त होने का उपाय उसी के पास और उसी के भीतर है। बस आवश्यकता है तो अंतस में गोता लगाने की। जब-जब वह इस तरह का प्रयास करता है, तब-तब उसे जीवन की बहुमूल्यता की अनुभूति होती है कि जीवन तो श्रेष्ठ है, आनन्दमय और आदर्श है। लेकिन जब यह अनुभव होता है कि श्रेष्ठताओं के विकास में अभी बहुत कुछ शेष है, तो इसका कारण स्वयं को पहचानने में कहीं न कहीं चूक है। यही कारण है कि मनुष्य समस्याओं से घिरा हुआ है …।