हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “सुख दु:ख पुण्यापुण्य विषयाणा भावनातश्चित्तप्रासादनम् ..!” कामनाओं का निग्रह भगवत कृपा का ही परिणाम है। समुद्र में वायु की लहरें अधिक समय नही ठहरती; तथैव शांत-निर्द्वन्द और भगवदीय विधान के प्रति समर्पित साधक का अंतःकरण सांसारिक प्रलोभनों से सर्वथा मुक्त रहता है ..! अनियंत्रित कामना ही दुःख का कारण है। अतः अन्तहीन कामनाओं के सैन्यदल को पराभूत करने के लिए विवेक-व्यूहरचना एवं संयम-सजगता साधक की प्राथमिकता होनी चाहिये। सरल-विनम्र और निराभिमानी जीवन अभ्यासी बनें। जिसे अपना कुशल करना है और परम पद निर्वाण उपलब्ध करना है, उसे चाहिए कि वह सुयोग्य बने, सरल बने, सुभाषी बने, मृदु स्वभावी बने, निरभिमानी बने और संतुष्ट रहे। थोड़े में अपना पोषण करे, दीर्घसूत्री योजनाओं में न उलझा रहे, सादगी का जीवन अपनाए, शांत इन्द्रिय बने, दुस्साहसी न हो, दुराचरण न करे और मन में सदैव यही भाव रखे कि सभी प्राणी सुखी हों, निर्भय हों एवं आत्म-सुखलाभी हों। इसलिए अपमान न करें, क्रोध या वैमनस्य के वशीभूत होकर एक-दूसरे के दु:ख की कामना न करें। समस्त प्राणियों के प्रति अपने मन में अपरिमित मैत्रीभाव बढ़ाए। कर्तापन का अभिमान आध्यात्मिक पथ की मूल बाधा है। अहमन्यता के अवसान होते ही दैवत्व का आरोहण होने लगता है और जीवन में समस्त दिव्यताएंं स्वत: प्रकट होने लगती हैं। विद्या-विभूति, यश-वैभव, साधन संपन्नता एवं लौकिक-पारलौकिक अनुकूलताओं के रूप में जो कुछ भी प्राप्त है, वह ईश्वरीय उपहार है। अत: प्राप्त के प्रति प्रासादिक भाव रखें …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – गीता का उद्देश्य ही परमात्मा, आत्मा और सृष्टि विधान के ज्ञान को स्पष्ट करना है। श्रीमद्भगवत गीता भारत के सभी प्राचीन योग और ज्ञान का निचोड़ और समन्वय है। गीता वास्तव में चरित्र निर्माण का सबसे बड़ा और उत्तम शास्त्र है। इसके माध्यम से भगवान ने कहा है कि चरित्र कमल पुष्प समान संसार में रहकर और श्रेष्ठ कर्मों से बनेगा न कि घर-बार छोड़ने से। अनन्य भाव से परमात्मा की उपासना शरणागति मुख्य आधार है। ईश्वर के समीप बैठने से वैसी दिव्यता उपासक को भी प्राप्त होती है और उसके सन्ताप गलकर नष्ट होने लगते हैं। गीता के शब्दों में, “जो मुझे (ईश्वर को) सब जगह और सब चीजों को मेरे अन्दर देखता है, वह न कभी मुझसे पृथक होता है और न मैं उससे पृथक होता हूँ”। हम सभी परमपिता परमात्मा की संतानें हैं। वे सभी को समान रूप से चाहते हैं, पर वह जिन्हें योग्य, विश्वसनीय और ईमानदार समझते हैं, उन्हें अपनी राज-शक्ति का कुछ अंश इसलिए सौंप देते हैं कि वे उसके ईश्वरीय उद्देश्यों की पूर्ति में हाथ बटाएं। धन, बुद्धि, स्वास्थ्य, शिल्प, चतुराई, मनोबल, नेतृत्व आदि की शक्तियां जिन्हें अधिक मात्रा में दी गई हैं, वे उन्हें दैवीय प्रयोजन के लिए दी गई हैं। जो अधिकार सामान्य प्रजा को नहीं है, वे अधिकार नगराधिकारी को देकर राजा कोई पक्षपात नहीं करता, बल्कि अधिकार योग्य से अधिक काम लेने की नीति बरतता है। स्वार्थ की संकीर्णता का परित्याग कर दें तो मामूली सी आवश्यकताएं ही शेष बचती हैं इनके लिये कोई बड़ी दौड़-धूप नहीं करनी होती। ऋषियों का जीवन इसीलिए सदैव त्यागमय रहा है कि जीवनयापन के साधनों में थोड़ा-सा समय लगाकर शेष समय का सदुपयोग वे विश्व-रहस्य जानने तथा ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त करने में बिताते थे। भारतीय संस्कृति को गौरव प्रदान करने का यह महानतम कार्य ऋषियों ने अपनी आवश्यकताओं को घटाकर किया था। इसलिए आज भी वही मार्ग श्रेष्ठ है और उसी पर चलकर हम अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझा सकते हैं …।