हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा …”।। साधना के माध्यम से अपने वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयास करें। आपकी चिंताएं समाप्त हो जायेंगी, आप पूर्ण शांति, आनन्द एवं स्वयं को संरक्षित अनुभुत करने लगेंगे ..! साधना का वास्तविक स्वरूप ही साध्य है। साध्य जीवन के आदर्शों तथा आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा देता है। हमारे जीवन को यथार्थ बनाने में इसकी बड़ी भूमिका है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने सत्य को जीवन का आधार बताया है, क्योंकि साध्य (सत्य) के आधार पर अपेक्षा निर्धारण और उत्कृष्टता को प्रकट करता है। मनुष्य वासना और विवेक का एक समन्वित रूप है और धार्मिक साधना का कार्य वासनाओं पर विवेक का अंकुश लगाना है। जन्म लेना और फिर अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करते-करते मर जाना जीवन की परिभाषा नहीं है – मनुष्य जीवन की तो कतई नहीं। मनुष्य योनि की शास्त्रों में प्रशंसा ऐसे ही नहीं की गई है। देवता भी मनुष्य जीवन प्राप्त करने को तरसते हैं। इसका कारण है, इस योनि में छिपी अनन्त संभावनाएं। स्वयं को सही रूप में जानना इस जीवन की कृतकृत्यता है। इसे आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, मुक्ति, निर्वाण, इष्ट प्राप्ति आदि कई नामों से संबोधित किया जाता है। आत्मोन्नति ही मनुष्य का ध्येय है, लक्ष्य है। इस आत्मोन्नति का मूल साधन कर्म है। धर्म के बिना जीवन शून्य है। धर्मत्व जीवन का नियामक है। धर्म क्या है? जो सब वस्तुओं को धारण करता है। जो धारण किया जाए वही धर्म है। धर्म ज्ञान होने से ही मनुष्य अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। सभी जीव धर्म के द्वारा ही न केवल रक्षित हैं, बल्कि परिचित भी हैं। मनुष्य इस विषय में अनेक अंशों में स्वाधीन है। अन्य जीव प्रकृति के आधीन हैं। अतः धर्मसाधना के लिए मनुष्य शरीर ही सबसे उपयुक्त है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि केवल मनुष्य मात्र होने से ही उसे धर्म ज्ञान नहीं प्राप्त हो जाता, क्योंकि आज भी असभ्य देशों में रहने वाले ऐसे लोग हैं जो न तो धर्म से परिचित हैं और न ही धर्म का अनुशीलन करते हैं। इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि तुच्छ रेत के कण से लेकर पशु-पक्षी ही नहीं, देवताओं तक का धर्म अवश्य है एवं वह धर्म ही धारण किए हुए हैं। जो मनुष्य धर्म का अनुशीलन करते हैं, यथार्थ में वे मनुष्य हैं। और, जो आहार, निद्रा, भय व मैथुन आदि में रत हैं वे मनुष्य शरीर में पशु हैं। अतः मनुष्य जीवन प्राप्त होने पर धर्मज्ञान प्राप्त करना प्रधान कर्तव्य है। प्रभु ने असीम कृपा कर मानव को वह शक्ति दी है जिससे उन्नति की चरम सीमा पर पहुंचा जा सकता है। इसी साधना-क्षमता के कारण मनुष्य सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना है। वह शक्ति धर्मज्ञान ही है, किंतु केवल मनुष्यत्व प्राप्त कर लेना ही उन्नति की चरम सीमा नहीं है। यह तो हमारी यात्रा का पड़ाव भर है। मनुष्य की यात्रा तो ईश्वरत्व प्राप्त करने की है। इस प्रकार मनुष्य की आत्मा ही ईश्वर प्राप्ति व प्रार्थनाओं की पूर्ति का धाम है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जीवन की अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं। इसे जिसने जैसे देखा, वैसा पाया। सृष्टि-निर्माण के पीछे दृष्टि महत्त्वपूर्ण होती है। भारतीय ऋषि जीवन को परम उपलब्धि मानते हैं। वे जन्म से लेकर मृत्यु के बीच के अंतराल को ऐसा साधन बनाने की युक्ति बताते हैं, जिससे कोई भी इन दोनों स्थितियों से पार जा सकता है। उसके सभी शोक-भय आदि समाप्त हो जाते हैं।जिसके सामने जीवन पारदर्शी दर्पण के सामन है, हस्तामलकवत् है, वही सौभाग्यवान है, क्योंकि उसने वह पा लिया है जिससे जीवन को सही परिभाषा मिलती है। यह निर्दोष जीवन की उपलब्धि है। इसलिए इसका अनुभव करें और मधुर स्वर से उच्च घोष करें —‘सोऽहम्’ (मैं वही हूं), अहम् ब्रह्माऽस्मि (मैं ब्रह्म हूं) ! जब हम सत्य को त्याग देते हैं, वास्तविकता से मुँह चुराते हैं, तब वास्तव में हम स्वयं से दूर भाग रहे होते हैं। सत्य स्वयं में हमारा स्वभाव है। सत्य केवल उसी मन में, स्थिति में ही प्रकट होता है जब हमारी समस्त जानकारियाँ अनुपस्थित होती हैं, हमारा ज्ञान जब कार्यरत नहीं होता। मन ज्ञान का स्थान है, वह ज्ञान का अवशेष है। जब वह स्थान समस्त ज्ञान से रिक्त होकर शून्य होता है, देखा-सुना जब छूट जाता है तब उस स्थिति में भी जो अज्ञान सामने आता है, वह सत्य को जन्म देने में समर्थ होता है। हमें मन के लिए अपने प्रति, अपने सचेत तथा अचेत अतीत के अनुभवों के प्रति अपनी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत होना अनिवार्य है। आप किसी दूसरे के द्वारा सत्य को प्राप्त नहीं कर सकते। सत्य जड़ वस्तु, स्थान या प्रतिक्रिया नहीं है, तत्काल उपलब्ध होने वाला कोई भावनात्मक रूप भी नहीं है। सत्य चेतन, सजीव, गति पूर्ण, सतर्क, स्फूर्त है। जब मन सत्य की खोज करता है तब वह परम्परागत प्रणाली, प्रक्रियाओं और पूर्णवर्ती धारणाओं का पालन कर अपने अंदर की चीज को बाहर देख रहा होता है। मन सत्य को खोजते हुए आत्म-संतोष को प्राप्त कर लेता है। अंततः आदर्श आत्म-संतोष के कारण मन वास्तविकता को नहीं, वरन उस अवास्तविकता को ही स्वीकार कर लेता है, जो मिथ्या है। और, वास्तविकता वही है जो वास्तव में है, इसका विपरीत नहीं। समस्त ज्ञान के लीन होने पर शाश्वत अनुभूति में एक मिठास का अनुभव होता है। उसी आदत में सत्य है। हम केवल ज्ञान के विषय में ही सोच पाते हैं, ज्ञान के पीछे ही दौड़ते हैं। जब मन ज्ञान, उनके परिणामों और क्रिया-प्रतिक्रियाओं से आहत नहीं होता है। फिर समस्या यह है कि हममें अवास्तविक क्या है? लेकिन इस समस्या से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। समस्या का यथावत अवलोकन करने पर समाधान निश्चित है। प्रत्येक समस्या स्वयं में समाधान रखती है और ऐसी कोई पहेली नहीं है जिसका हल न हो। प्रत्येक सामने आ खड़ा होने वाला प्रश्न स्वयं में उत्तर छिपाए बैठा होता है। मैं क्या हूं? कौन हूं? इसके प्रमाण के लिए दूसरों की क्या आवश्यकता? स्वयं के प्रमाण के लिए अन्य प्रमाण कोई औचित्य नहीं रखता। मैं स्वयं ही प्रमाण हूं। प्रमाण खोजने के लिए हमें जिनका आश्रय लेना होगा वे स्वयं अप्रमाण सिद्ध होंगे। सत्य स्वयं में सरल और आनन्दप्रद है। अतः जब हम सत्य को त्यागकर अन्य मुखौटे धारण कर लेते हैं, तब हम स्वयं से ही दूर भाग रहे होते हैं …।