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योग मानवता की न्यूनतम जीवन शैली होनी चाहिए – स्वामी अवधेशानंद गिरि

हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “विक्रमजिर्तस्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ..!” सद्भाव, साहस और सामूहिक प्रयासों द्वारा इस संकटकाल पर हम विजय प्राप्त कर सकते हैं। अतः अपने विचारों को शुद्ध और दिव्य रखें। एक आशावादी दृष्टिकोण, मजबूत इच्छाशक्ति और आध्यात्मिक मानसिकता कठिन से कठिन चुनौतियों को पार करने में सहयोग प्रदान करती है ..। दुःख का मूल कारण अज्ञानता है। वर्तमान युग में लोग धर्म से दूर होते जा रहे हैं। जितना हम सुख की तरफ दौड़ रहे हैं, उतना ही जीवन में दुखी होते जा रहे हैं। हमें अपने व्यस्त जीवन में से कुछ समय परमात्मा की भक्ति करने के लिए अवश्य निकालना चाहिए। ‘कोरोना संक्रमणकाल’ के दौर में मानव जीवन के लिए योग रामबाण औषधि की तरह है। योग मानवता की न्यूनतम जीवनशैली होनी चाहिए। मानव को पूर्णमानव बनाने का यही एक सशक्त माध्यम है। योग की एक किरण ही काफी है – भीतर का तम हरने के लिये, दुनिया में शांति एवं सौहार्द स्थापित करने के लिये। बस शर्त एक ही है कि उस किरण को पहचानने वाली दृष्टि और दृष्टि के अनुरूप पुरुषार्थ का योग हो। भारतभूमि अनादिकाल से योग भूमि के रूप में विख्यात रही है, जिसका लाभ अब सम्पूर्ण विश्व को मिल रहा है। भारत का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने योगियों की योग-साधना से आप्लावित हुआ है। तपस्वियों की गहन तपस्या के परमाणुओं से अभिषिक्त यह माटी धन्य है और धन्य है यहाँ की हवाएं, जो साधना के शिखर पुरुषों की साक्षी हैं। इसी भूमि पर कभी वैदिक ऋषियों एवं महर्षियों की तपस्या साकार हुई थी तो कभी भगवान महावीर, बुद्ध, गुरुनानकदेव एवं आद्य शंकराचार्य की साधना ने इस माटी को कृत्कृत्य किया था। साक्षी है यही धरा रामकृष्ण परमहंस की परमहंसी साधना की, साक्षी है यहाँ का कण-कण विवेकानन्द की विवेक-साधना का, साक्षी है क्रांत योगी से बने अध्यात्म योगी महर्षि अरविन्द की ज्ञान साधना का और साक्षी है महात्मा गांधी की कर्मयोग-साधना का। योग साधना की यह मंदाकिनी न कभी यहाँ अवरुद्ध हुई है और न ही कभी अवरुद्ध होगी। इसी योग मंदाकिनी से प्रधानमंत्री आदरणीय श्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयत्नों एवं उपक्रमों से आज समूचा विश्व आप्लावित हो रहा है, निश्चित ही यह एक शुभ संकेत है सम्पूर्ण मानवता के लिये और सम्पूर्ण विश्व के लिए। भारत आज रक्षक की भूमिका में उभर कर आया है। इसलिए सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, विश्व मानवता का कल्याण हो, सबकी सोच सकारात्मक हो, लोगों का जीवन योगमय हो, इसी से युग की धारा को बदला जा सकता है और ‘कोरोना’ महासंकट से मुक्ति पायी जा सकती है …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – योग चीजों की सही परिप्रेक्ष्य में समझने का विज्ञान है, अन्यथा बिना योग आदमी सिद्धान्तों को ढोता है, जीता नहीं। सत्य बोलता है, अनुभव नहीं करता। संसार को भोगता है, जानता नहीं। इसलिये योग सत्य तक ले जाने वाला राजपथ है। जो स्वदर्शी बनने की साधना साध लेता है वह कालिदास की भाषा में ‘ज्ञाने मौनं, क्षमा शक्तौ, त्यागे श्लाघाविपर्यय …’ की भूमिका में पहुँच जाता है। उसका चरित्र सौ टके का शुद्ध सोना बन जाता है। योग जीवन का अन्तर्दर्शन कराता है। इसके दर्पण में मनुष्य अपना बिम्ब देखता है, क्योंकि दर्पण से ज्यादा जीवन का और कोई वक्ता नहीं होता। अतः प्रतिक्षण भारुण्ड पक्षी की तरह जागरूक बने। अप्रतिक्रियावादी बने, अहिंसक एवं संतुलित बने। सुख-दुःख, लाभ-हानि, प्रतिकूल-अनुकूल प्रसंगों में संतुलन रखे, क्योंकि ‘सम्मत्तदंसी न करंति पावं …’ समत्वदर्शी पाप नहीं करता। बस यही योग जीवन में अवतरित करना है कि हम पुराने असत् संस्कारों का शोधन करें। नये अशुभ संस्कारों-आदतों को प्रवेश जीवन में न होने दें …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – मनुष्य में सकारात्मकता और प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ता है – योग। योग मनुष्य जीवन की विसंगतियों पर नियंत्रण का माध्यम है। विश्वभर में योग के साधक आलोक की यात्रा पर निकल चुके हैं। जिस दिन वे दीर्घश्वास का अभ्यास करते हैं, स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार करते आलोक की पहली किरण उनके भीतर प्रवेश कर जाती है। उसके प्रकाश में कोई भी साधक अपने भीतर को देखने में सफल हो सकता है, बशर्ते उसका लक्ष्य अन्तर्मुखता हो। आत्म-दर्शन की सोपान पर चढ़कर ही हम अपने स्वरूप को पहचान सकते हैं। अपने विकास की सार्थकता तभी होगी, जब हमें स्वयं का बोध होगा। आत्मबोध का सबसे सरल उपाय है – अभ्यास एवं एकाग्रता की साधना। जिस व्यक्ति का लक्ष्य महान होता है, वही अपनी प्रवृत्ति का उदात्तीकरण कर सकता है, अपनी और जग की समस्याओं का समाधान पा सकता है। योग मनुष्य को पवित्र बनाता है, निर्मल बनाता है, स्वस्थ बनाता है, कोरोना संक्रमण के दौर में योग रामबाण औषधि की तरह है। यजुर्वेद में की गयी पवित्रता-निर्मलता की यह कामना हर योगी के लिए काम्य है कि ‘‘देवजन मुझे पवित्र करें, मन में सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करें, विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें, अग्नि मुझे पवित्र करें’’। इसलिए योग के पथ पर अविराम गति से वही साधक आगे बढ़ सकता है, जो चित्त की पवित्रता एवं निर्मलता के प्रति पूर्ण जागरूक हो, क्योंकि निर्मल चित्त वाला व्यक्ति ही योग की गहराई तक पहुंच सकता है।

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