हरिद्वार। जूनापीठाधीश्वर आचार्यमहामंडलेश्वर पूज्यपाद स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज ने कहा – “सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं …”। कमल दल की सुरभिता-दिव्यता, सौन्दर्य-मकरंदता व सीमातीत शुचिता से जलाशय में विद्यमान पंक भी अनुपम-उद्दाप्त व मोहक प्रतीत होता है, तथैव महापुरुषों की सन्निधि से अल्पज्ञ व्यक्ति भी प्रज्ञावान व प्रतिष्ठित हो जाता है ..! महापुरुषों ने सज्जनों की संगति को सत्संग कहा है। महापुरुषों की संगति से मन पवित्र होता है, पवित्र मन ही प्रभु-सेवा में अनुरक्त होगा। महापुरुषों की संगति से ही आदर्श मानव का निर्माण संभव है। मनुष्य के मन पर विचारों का गहरा प्रभाव पड़ता है। विचार हमारे कर्मो के बीज हैं। जैसे विचारों पर चिन्तन होगा, वैसा ही हमारा कर्म होगा। कर्मों के आधार पर मनुष्य के चरित्र का निर्माण होता है। मंथरा के कलुषित विचारों का कैकेयी के मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह प्रभु श्रीराम को वनवास देने को तैयार हो गई। दुर्योधन की दुर्बुद्धि भी उसके मामा शकुनि के दुर्विचारों का परिणाम थी। इसलिए कहा भी गया है – जैसी संगत, वैसी रगत। चाहे एक व्यक्ति का जन्म कितने भी ऊँचे वर्ग में क्यों न हुआ हो, अच्छी संगति के अभाव में वह एक अपराधी बन सकता है। एक निम्न परिवार मे रहने वाले व्यक्ति को अगर अच्छी संगति मिल जाए तो वह एक समाज सुधारक बन सकता है। महापुरुष मानव मन को आत्मज्ञान की ज्योति से प्रकाशित कर देते हैं। जब मनुष्य के मन का अंधकार समाप्त हो जाता है तो वह स्वत: ही सद्मार्ग की ओर प्रेरित हो जाता है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – हमें महापुरुषों की संगत से मनुष्य जन्म का पूरा लाभ उठाना चाहिए। भारतवर्ष में जितने दर्शनशास्त्र हैं, उन सबका एक ही लक्ष्य है और वह है – पूर्णता को प्राप्त करके आत्मा को मुक्त कर लेना। सभी युगों में, सभी देशों में निष्काम शुद्ध भाव साधु महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गए हैं और करते रहेंगे। संसार हित छोड़कर अन्य कोई कामना उनमें नहीं थी। उन सभी लोगों ने कहा कि इन्द्रियाँ हमें, जहाँ तक सत्य का अनुभव करा सकती हैं हमने उससे उच्चतर सत्य प्राप्त कर लिया है और वे उसकी परीक्षा के लिए आपको बुलाते हैं। उन्होंने स्वयं कुछ विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और उन पर विचार करके कुछ सिद्धान्तों पर पहुँचे हैं। वे जन साधारण की अनुभूति पर उनके सत्य या असत्य के निर्णय का भार छोड़ देते हैं, ठीक इसी प्रकार संत-महापुरुष भी अपनी बात के बल पर आत्मा-परमात्मा में विश्वास करने को नहीं कहते, बल्कि वह दिव्य ज्ञान देकर प्रत्यक्ष अनुभूति करवाते हैं। वेद भी इसी बात को कहते हैं। अन्त में, उन्होंने कहा कि संसार के सभी महान उपदेष्टाओं ने सत्य को जीवन में अपनाने की बात कही, क्योंकि सत्य को जीवन में धारण करने से बड़ा कोई धर्म नहीं। सत्संग से लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। यदि कोई मनुष्य इस जीवन में दु:खी रहता है तो कम से कम कुछ समय के लिए श्रेष्ठ पुरुषों की संगति में वह अपने सांसारिक दु:खों का विस्मरण कर देता है। महापुरुषों के उपदेश सदैव सुख व शांति प्रदान करते हैं। दु:ख के समय मनुष्य जिनका स्मरण करके धीरज प्राप्त करता है, सत्संग में लीन रहने वाले मनुष्य को दु:खों का भय नहीं रहता है। इस प्रकार उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिससे दु:खों का कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता।