हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्। तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः …”।। ईश्वरीय नाम में प्रचंड शक्ति है। प्रार्थना करें, जप करें और पूरे विश्वास के साथ भगवान के नाम का स्मरण करें ..! मनुष्य भगवत प्राप्ति के बिना न जाने कितने जन्मों से इस संसार चक्र में भटक रहा है। इसका प्रमुख कारण अज्ञानता है। मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है – भागवत प्राप्ति। इसके लिए जरूरी है कि हम सन्मार्ग पर चलते हुए भगवान की मन से आराधना करते रहें। ईश्वर की प्राप्ति से ही पूरी होगी जीवन यात्रा। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने बताया कि जीवन सदुपयोग के लिए है, उपभोग के लिए नहीं। इस वैश्विक संकटकाल में आत्म-अनुशासन, प्राकृतिक नियमों का निर्वहन, उदारता पूर्वक साधनहीन बन्धु-भगिनियों की सेवा-तत्परता एवं तत्काल योगदान अपेक्षित है ! मर्यादा पालन सर्वथा हितकर है ! अनुशासन जीवन लक्ष्य-सिद्धि में सहायक उपक्रम है। जिस प्रकार सागर तक पहुँचने के लिए सरिताओं में निश्चित लय-गति, प्रवाहमानता एवं तटों का अवलम्बन-अनुशासन आवश्यक है, उसी प्रकार जीवन में उच्चतम लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आत्मानुशासन परमावश्यक है। आध्यात्मिक अन्त:करण का निर्माण कर मनुष्य असीम सामर्थ्य और अनन्त ऊर्जा का अधिकारी बन सकता है ! आध्यात्मिक यात्रा स्वभाव की यात्रा है। पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा कि ‘सच्चा साधक वह है जिसकी दिनचर्या और आहार-विहार पूरी तरह प्राकृतिक है। परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमेशा ही नियमित, संयमित और आध्यात्मिक दिनचर्या का ही पालन करें। हमारे यहाँ पौराणिक काल से ही ऐसे आहार-विहार की परंपरा रही है, जो मौसम के अनुकूल होने के साथ ही हमारी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला हो। ध्यान और स्वाध्याय साधना से अपनी संकल्प एवं आंतरिक शक्ति को निरंतर जागृत करने का प्रयास करें। यह ऐसी सात्विक दिनचर्या है, जो तन और मन की दुर्बलताओं का नाश करती है। तनाव विसर्जन में अध्यात्म की महत्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने कहा कि यह आर्थिक युग है। इसमें पदार्थ की अधिक इच्छा के कारण व्यक्ति अशांत रहता है। अति स्वच्छंद और अनियंत्रित भोगवाद के कारण स्वस्थ समाज का निर्माण नहीं हो पा रहा है। इसके लिए हर मनुष्य को अनुशासित व संस्कारित होना होगा, तभी वह समाज व सृष्टि के लिए उपयोगी होगा और व्यक्ति को संस्कारित करना ही अध्यात्म का काम है। गीता में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि जो योगी की भांति अपनी आत्मदृष्टि से सुख अथवा दु:ख में समत्व के दर्शन करता है, जो सभी को समभाव से देखता है, वह परम श्रेष्ठ योगी है। यह योग की पराकाष्ठा है। ऐसे योगी के लिए सभी ओर पवित्रता ही विराजती है। इस प्रकार ईश्वर के साथ एकत्व स्थापित कर लेना ही योग का उद्देश्य होना चाहिए। उसके बाद जीवन में आनन्द ही आनन्द रहता है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – भगवान की अतिशय कृपा है जो हमें मनुष्य का तन मिला है। सारे कर्म काट कर तो हम मनुष्य बनें हैं। पशु नहीं हैं, परिंदे नहीं हैं, महाभाग्यवान हैं कि हमें मनुष्य देह प्राप्त है ईश्वर की जब अनन्य कृपा होती है तभी मानव देह प्राप्त होती है। यह मनुष्य तन ही मोक्ष का द्वार है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित्र मानस में कहा है कि “साधन धाम मोक्ष का द्वारा, पाई न जेहि परलोक संवारा …”। शौनकादि ऋषियों ने भी यही प्रश्न किया था, जिसमें पहला प्रश्न यही था कि मनुष्य जीवन का श्रेय क्या है। तब श्रीसूतजी ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण में प्रेम हो जाये, यही सबसे बड़ा लाभ है। देवर्षि नारद जी ने भागवत धर्म को सुनकर उसी का विस्तार किया है। मनुष्य होने का अर्थ है, जिसके पास स्वभावतः शोध, अन्वेषण और गवेषणा की प्रवृत्ति है। मनुष्य की शोध प्रवृत्ति ने मानव जाति को लाभान्वित किया है। हमारे ऋषि-मुनियों ने भी कण-कण में ईश्वर को ढूंढ़ा है। मनुष्य की नियति तो ईश्वर होने की है। देव बनना तो उसकी यात्रा का पड़ाव मात्र है। जिस दिन उसका ज्ञान के गलियारे में प्रवेश हो जाता है, वह निष्काम कर्म योग की कला को प्राप्त हो जाता है। उसे निपुणता प्राप्त हो जाती है। और, जब वह किसी जागृत गुरु के पास चला जाता है, तब वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है। पूज्य “आचार्यश्री” ने कहा कि “एक नूर से सब जग उपज्या …” का अर्थ है रूप की भिन्नता एक ही तत्व से है। मनुष्यता को प्राप्त करके उस ‘एक’ को पाया जा सकता है। भगवान की कृपा और सदगुरु संगति समय के बंधन में बंधी नहीं है। भागवत कथा का एक ही फल है “यह खो जाने के डर को समाप्त कर देती है”। मनुष्य अर्थ, अनुकूल संबंध, दैनिक सौंदर्य, मान-प्रतिष्ठा और ख्याति छिन जाने के डर से भयभीत रहता है। अध्यात्म हमें जितेंद्रिय बनाता है। जब आप जितेंद्रिय होंगे तब पूरी धरती आपका आदर करने लगेगी। गीता युद्धकाल में भी ईश्वर का स्मरण और सुवृत्ति धारण करने का उपदेश देती है। पूज्य स्वामीजी ने कहा कि समर्थ गुरु के पास रहोगे तो वहाँ संयम और अनुशासन मिलेगा। इसलिए आत्मदर्शी की संगत से निर्लोभता प्राप्त होती है। पूज्य “आचार्यश्री जी” ने कहा कि अमूल्य समय व्यर्थ न गवाएं। काल का प्रत्येक क्षण अपने आप में नूतन तथा पूर्ण होता है। आत्म-अनुशासन आपके समय को अच्छी तरह से प्रबंधित करने की कुंजी है। जीवन के क्षण सामान्य नहीं हैं। उसके मूल्य का पता तब चलेगा, जब जीवन जा चुका होगा। उस समय एक क्षण भी अधिक नहीं ले पाओगे। इसलिए जीवन में प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करें। हमारा प्रत्येक क्षण महत्वपूर्ण एवं महनीय है; क्योंकि जो पल एक बार व्यतीत हो जाते हैं, वे कभी भी वापस नहीं लौटते। सफलता के लिए यदि व्यक्ति समय रहते प्रयास नहीं करता है तो वह जीवनपर्यन्त ठोकरें खाता रहता है और उसकी सफलता मृगतृष्णा की भांति उससे मीलों दूर रहती है। अत: यह आवश्यक है कि यदि संसार में हम एक अच्छा और सफल जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो हम समय के महत्व को समझें और हर क्षण को उसकी पूर्णता के साथ जीएँ ..!