ईश्वर समस्त गुणों के सागर हैं – स्वामी अवधेशानंद गिरि

हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः …”।। मन को शुद्ध, शांत और अनुशासित रखने के प्रयास करें। शुद्ध, दिव्य मन सबसे बड़े तीर्थों में से एक है। अतः विचारशील बनें। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखें और सदैव परोपकार के द्वारा संसार में श्रेष्ठ से श्रेष्ठ पद को प्राप्त करने का प्रयत्न करें ..! ईश्वर के प्रति समर्पण से जीवन की शक्ति मिलती है। अबोध बालक माँ की गोद में पहुँच कर या पिता की ऊँगली पकड़ लेने पर पूरी तरह आश्वस्त हो जाता है। उसे अपने माता-पिता पर पूरा विश्वास है और यह विश्वास ही उसे भयमुक्त कर देता है। हमें भी परमेश्वर से पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, आस्था व विश्वास का रिश्ता बना लेना चाहिए। हमें सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक प्राणी में उसी परमात्मा का अंश है सबके साथ परस्पर प्रेम व सद्‌भाव का व्यवहार करते हुए सबकी उन्नति का प्रयास करना चाहिए। दूसरों के साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं करना चाहिए जो हमें स्वयं अपने लिए पसंद न हो। सज्जन व्यक्तियों को संगठित करके संसार में व्याप्त अनीतियों व कुरीतियों से लोहा लेने में सदैव तत्पर रहना चाहिए और सृजनात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहन देकर सभी की भलाई के कार्य ही करने चाहिए। श्रेष्ठ पुरुष वही होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के केवल दूसरों की भलाई करना ही अपना धर्म समझते हैं। दूसरों को कष्ट में देखकर उन्हें स्वयं गहन पीड़ा होने लगती है और वे उसके निराकरण में प्राणपण से जुट जाते हैं। ये देवकोटि में गिने जाते हैं। दूसरे वे लोग हैं जो अपना भी कार्य सँवार लेते हैं और दूसरों का भी कार्य बना देते हैं। ये मनुष्य कोटि में आते हैं। तीसरे वह व्यक्ति होते हैं जो अपना काम तो निकाल लेते हैं पर दूसरों का काम बिगाड़ देते हैं, वे निसाचर कोटि में आते हैं। अतः किसी भी व्यक्ति में दूसरों का उपकार करने की जितनी अधिक भावना होती है उतनी ही उसमें मनुष्यता होती है। इसलिए वे ही जीवन में यशस्वी होते हैं …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – प्रभु की शरण प्राप्त करने के लिए साधक में श्रद्धा और विश्वास का होना आवश्यक है। इसके अलावा साधक में सहृदयता, सरलता, शांति व समदृष्टि का प्रवेश स्वत: हो जाता है। वह ईर्ष्या-द्वेष से अलग सर्वदा आनंदातिरेक में निमग्न रहता है। ईश्वर ही सृष्टा हैं। समर्पित भाव से उनकी शरण में पहुँच जाने से अपार शांति व संतोष की अनुभूति होती है। जो प्रभु को सर्वस्व अर्पण करने के लिए तैयार हैं, वही सच्चे शरणागत हैं। वस्तुत: ईश्वर समस्त गुणों के सागर हैं। उनकी शरण में आया हुआ व्यक्ति गुणों से अछूता नहीं रह सकता। शरणागत प्रभु के सान्निध्य में आने पर स्वत: ही गुणों व अच्छाइयों को आत्मसात कर लेता है। उसका सांसारिक दोषों-काम-क्रोध, लोभ-मोह व अहंकार से दूर-दूर तक का संबंध नहीं रहता। ऐसी स्थिति में प्रभु को समर्पित पुरुष सद्गुणों से सम्पन्न हो जाता है। उसे सांसारिक उपलब्धियों-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष में से किसी की भी कामना नहीं सताती। धर्म का पालन तो वह स्वयं स्वेच्छापूर्वक कर ही रहा है। अर्थ व काम का लालच उसके पास तक नहीं फटकता। वह पुरुष समय के अनुसार मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। उसकी आत्मा परमात्मा के सानिध्य में पहुँच कर सर्वोच्च आनन्द की अनुभूति करती है। शरणागत होने के लिए कोई विशेष प्रयास करना आवश्यक नहीं है। अपने आपको भगवान पर पूर्णत: आश्रित करते हुए करने योग्य कर्मों को फल की इच्छा के बिना करना चाहिए।शरणागत होने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं, जिनका आशय यह है – यह संकल्प कि मैं सदा प्रभु के अनुकूल रहूंगा, प्रतिकूलता का त्याग करूंगा, प्रभु मेरी रक्षा करेंगे, प्रभु मेरे संरक्षक हैं, भगवान के प्रति पूरा विश्वास करते हुए और उनके सामने दीनता के भाव से प्रार्थना करूँगा। अतः इन नियमों को आत्मसात कर आप चेतना में व्याप्त ईश्वर की शरण में जा सकते हैं …।

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