हरिद्वार। पूज्य “सद्गुरुदेव” जी ने कहा – “श्रेयः च प्रेयः च मनुष्यम् एतः। धीरः तौ सम्परीत्य विविनक्ति …”।। ( – उपनिषद) आत्मज्ञान के अतिरिक्त अन्य सभी वस्तु-पदार्थ नश्वर अनित्य व मरण धर्मा हैं, अतः अज्ञान जनित विकारों से मुक्ति व आत्म-जागरण की तत्परता हमारा प्रथम लक्ष्य होना चाहिए ! आत्मज्ञान सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। आत्मा निरपेक्ष है। जगत में केवल एक चीज है जो स्थायी, अपरिवर्तनीय और अचल है और वह है – आत्मा। आत्म-ज्ञान प्राप्त हो जाने पर परमानन्द की अनुभूति होती है। जीवात्माओं का अस्तित्व तीन स्तम्भों पर आधारित है – शरीर, मन और आत्मा। मन, शरीर और आत्मा के बीच सेतु का कार्य करता है ! मनुष्य के व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण तत्व आत्मा होती है जो कि शरीर और मन दोनों को शक्ति प्रदान करती है और नियंत्रित करती है ! यह अपरिवर्तनशील, सूक्ष्मतर, जाग्रत और अचल होती है। मानव मन एक प्रक्षेपक यन्त्र की तरह कार्य करता है। यह मन यदि इश्वर की ओर मुड़ जाये तो ईश्वर के स्वरुप को प्रतिबिंबित करता है, किन्तु यही मन यदि संसार की ओर मुड़ जाये तो बुद्धि सीमित हो जाती है और उसमें भ्रम, विक्षोभ उत्पन्न होकर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जिस प्रकार शीशे पर धूल मिट्टी जमी हुई हो तो हम अपना प्रतिबिम्ब नही देख सकते है! इसी प्रकार हमारे मन पर पाप और अज्ञान रुपी धुल मिट्टी जमा होने पर हम आत्मा के सत्य का और उसकी शक्ति का अनुभव नही कर पाते हैं ! मनुष्य की आत्मा अपने पास की वस्तु का रंग ग्रहण कर लेती है ! यही कारण है कि जब मन अशुद्ध होता है तो आत्मा के निकट होने के कारण मन का स्वरुप ग्रहण कर लेता है और स्वतंत्र, अनन्त सर्वशक्ति संपन्न और सर्वोच्च होने के बाद भी बंधन में बंध जाता है ! समस्त पन्थों में मन के नियंत्रण पर इसी कारणवश अधिक ध्यान देने के निर्देश होते हैं। साधना और ध्यान के अभ्यास से आत्मा अपने स्वरूप को पहचान लेती है, किन्तु अपने वास्तविक रूप को प्रकट करने के लिए व्यवस्थित रूप से कर्म करने की आवश्यकता होती है ! यदि मन के कारण समस्त समस्याएं हैं तो आत्मा के ज्ञान में ही सारी समस्याओं का समाधान भी है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – जो जीवात्मा है, वही परमात्मा और जो परमात्मा है वही जीवात्मा है। इस सत्य को जानना ही आत्म ज्ञान है। जिन-जिन महापुरुषों ने आत्मज्ञान की प्राप्ति कर ली है, उन्होंने अपना अनुभव प्रकट करते हुए उसकी इस प्रकार पुष्टि की है कि हम अपना जीवन परमात्म तत्व से एक दिव्य प्रवाह के रूप में पाते हैं। अथवा, हमारे जीवन का उस परमात्म तत्व से ऐक्य है। हममें और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। हम और हमारा ईश्वर एक सत्य के ही दो नाम और दो रूप हैं। यही ज्ञान अथवा अनुभव आत्मानुभूति, आत्म प्रतीति अथवा आत्म ज्ञान के अर्थ में मानी गयी है। जिसे अपने प्रति सर्वशक्तिमान की प्रतीति होती है वह सर्वशक्तिमान और जिसको अपने प्रति निर्बलता की प्रतीति होती है, वह निर्बल बन जाता है और तदनुसार जीवन व्यक्त अथवा प्रकट होता है। अपने प्रति इस प्रतीति की स्थापना का प्रयास ही आत्म ज्ञान की ओर अग्रसर होना है। उसका उपाय आत्म चिंतन के अलावा क्या हो सकता है? जब यह चिंतन अभ्यास पाते-पाते अविचल, असंदिग्ध, अतर्क और अविकल्प हो जाता है, तभी मनुष्य में आत्म-ज्ञान का दिव्य प्रकाश अपने आप विकीर्ण हो जाता है, दिव्य शक्तियाँ स्वयं आकर उसका वरण करने लगती हैं और वह साधारण से असाधारण, सामान्य से दिव्य और व्यष्टि से समष्टि रूप होकर संसार के लिए आचार्य, योगी या अवतार रूप हो जाता है …।
पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – आत्मज्ञान का उपाय आत्मचिंतन है। अणु-अणु का मूलाधार परमात्म तत्व ही है। आकार-प्रकार में भिन्न दिखते हुए भी प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी उसी तत्व का अंश है। आत्म ज्ञान मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य है जिसने भौतिक विभूतियों के लोभ में इसकी उपेक्षा कर दी, उसने मानव जीवन का सारा मूल्य गंवा दिया। जो अवसर परमात्मा से संबंध स्थापित करने और दिव्य प्रकाश को ग्रहण करने की योग्यता उपार्जित करने के लिए मिला था, उसे अज्ञान के अंधकार में भटकते रहकर खो दिया। यह भूल मनुष्य जैसे विवेकशील प्राणी के लिए अनुचित और अवांछनीय है। इस अविवेक को त्याग भटके व्यक्ति को शीघ्र से शीघ्र ज्ञानमार्ग अपना लेना चाहिए। जीवन का प्रत्येक क्षण अमूल्य और अलभ्य है। इसलिए भूल सुधारने में जितनी शीघ्रता हो, उतना ही हितकर है। मनुष्य की महत्ता इस एक जीवन में सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करने की है। नहीं तो, इतना तो कर ही लेना चाहिए कि जो जीवन अपने अधिकार में है, उसे सत्य-पथ पर नियोजित कर जितना बढ़ाया जा सके, बढ़ा लिया जाये …।