सम्पूर्ण भारत में अनादि काल से धर्म की एक ही परिभाषा रही है जिसमें ईश्वर एक, साधना एक, अन्त में परिणाम एक उस ईश्वर में स्थिति, जिसके विधि की जागृति सद्गुरु से है।
मनुष्य की सम्पूर्ण लौकिक समस्याओं का हल, सुखमय जीवन तथा परम श्रेय की प्राप्ति धर्म की देन है।
धर्म का शास्त्र स्वयं महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त है जिसकी व्याख्या तत्वदर्शी वरिष्ठ महापुरुषों के क्षेत्र की वस्तु है।
किन्तु विगत दो हजार वर्षों से मुख्यतः पुष्यमित्र शुंग काल से, जब से धर्म का निर्णय शिक्षाविद् आचार्यों द्वारा होने लगा, धर्म में विकृतियाँ पनपने लगीं।
आजकल धर्म के नाम पर देशभक्ति धर्म,
सद्व्यवहार धर्म, समाजसेवा को धर्म माना जा रहा है
जबकि ये धर्म नहीं हैं।
कोई कहता है- वर्ण और आश्रम सनातन धर्म हैं
जिसके अनुसार शूद्र वेदवाक्य पर विचार करे तो नर्क जाय। जो उसको उपदेश करे, वह भी नर्क जाय।
#शूद्र को इस जन्म में भजन करने का,
वेद पढ़ने का या ओम् कहने का अधिकार ही नहीं है।
वह वनदेवी, वनदेवताओं की पूजा करे।
#वैश्य लक्ष्मी की पूजा करे।
#क्षत्रिय दुर्गा की पूजा करे।
ब्राह्मण सरस्वती की पूजा करे।
भगवान की पूजा करने का निर्देश किसी को नहीं है।
किसी ने भोजन और जल का स्पर्श कर लिया तो धर्म नष्ट, कोई समुद्र पार चला गया तो धर्म नष्ट !
विदेशी जलमार्ग और स्थलमार्गों से आये, खान-पान छुआ तो करोड़ों लोग धर्मभ्रष्ट हो गये। सब आपके सगे भाई हैं। रो-रोकर उन्होंने आपको छोड़ा है और रो ही रोकर आपके पूर्वजों ने उनको छोड़ा है।
वह धर्म नहीं था, एक कुरीति थी।
यदि वही धर्म था
तब तो आज सबने सबको छू लिया,
अब सबका धर्म क्यों नष्ट नहीं हो रहा है?
विगत हजार वर्षों में हिन्दू ही टूटा है, जुड़ा कोई नहीं।
वर्ण को जाति मानने की ही देन है कि लोग हिन्दू धर्म को छोड़-छोड़कर भागते जा रहे हैं।
भारत विश्वगुरु कहा जाता है
किन्तु भारत के धर्मगुरु विदेशियों को अपने धर्म में स्थान नहीं दे सके।
परम्पूज्य स्वामी श्री अड़गड़ानंद जी का धर्म के विषय में अमृतवानी|